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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
का मुख्य स्थान है। क्रिया के बिना यह नहीं व्यक्त किया जा सकता कि क्या हो रहा है और नाम या प्रातिपदिक के बिना यह नहीं बताया जा सकता कि क्रिया कहाँ, कैसे, किस के द्वारा और किस के लिए हो रही है।
क्रिया का ज्ञान हो जाने के बाद यह जानने की इच्छा होती है कि क्रिया का करने वाला वही है जो बोल रहा है, या जो सुन रहा है या इन दोनों के सिवाय कोई तीसरा है । हम यह भी जानना चाहते हैं कि क्रिया को करने वाला एक है, दो हैं या उससे अधिक हैं । इन सब जिज्ञासाओं को पूरा करने के लिए क्रिया के साथ कुछ चिह्न जोड़ दिए जाते हैं जो इन सब का विभाग कर देते हैं। इसीलिये उन्हें विभक्ति कहा जाता है। संस्कृत में क्रिया के आगे लगने वाली अठारह विभक्तियाँ हैं। तीन पुरुषों में प्रत्येक का एक वचन, द्विवचन और बहुवचन। इस तरह नौ आत्मनेपद और नौ परस्मैपद । हिन्दी में द्विवचन नहीं होता। आत्मनेपद और परस्मैपद का भेद भी नहीं है । इस लिए छः ही रह जाती हैं। ___ नाम अर्थात् प्रातिपदिक के लिए भी यह जानने की इच्छा होती है, क्रिया किसने की, क्रिया किस को लक्ष्य करके हुई, उसमें कौन सी वस्तु साधन के रूप में काम लाई गई, किसके लिए हुई इत्यादि। इन सब बातों की जानकारी के लिए नाम से आगे लगने वाली आठ विभक्तियाँ हैं। संस्कृत में सात ही हैं। सम्बोधन का पहिली विभक्ति में अन्तर्भाव हो जाता है।
इनका स्वरूप यहाँ क्रमशः लिखा जाता है(१) कर्ता- क्रिया के करने में जो स्वतन्त्र हो उसे कर्ता कहते हैं । जैसे राम जाता है, यहाँ राम कर्ता है। हिन्दी में कर्ता का चित'ने है। वर्तमान और भविष्यत् काल में यह चिह्न नहीं लगता।