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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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और सफेद भी यदि एक स्थान पर मिलते हैं तो उनका विरोध नहीं है । बौद्ध कई रंगों वाले वस्त्र के एक ही ज्ञान में काला
और सफेद दोनों प्रतीतियाँ मानते हैं। योग शास्त्र को मानने वाले भी भिन्न भिन्न रंगों के समूह रूप एक चित्र रूप को मानते हैं । भिन्न भिन्न प्रदेशों की अपेक्षा एक ही वस्तु में चल अचल, रक्त अरक्त, आत अनाहत आदि विरोधी धर्मों का ज्ञान होता ही है, इसलिए इसमें विरोध दोष नहीं लग सकता। वैयधिकरण्य दोष भी नहीं है, क्योंकि भेद और अभेद का अधिकरण भिन्न भिन्न नहीं है । एक ही वस्तु अपेक्षा भेद से दोनों का अधिकरण है। अनवस्था भी नहीं है, क्योंकि पर्याय रूप से किसी अलग भेद की कल्पना नहीं होती, पर्याय ही भेद है। इसी प्रकार द्रव्य रूप से किसी अभेद की कल्पना नहीं होती किन्तु द्रव्य ही अभेद है। अलग पदार्थों की कल्पना करने पर ही अनवस्था की सम्भावना होती है, अन्यथा नहीं । सङ्कर और व्यतिकर दोष भी नहीं हैं। जैसे कई रंगों वाली मेचकमणि में कई रंग प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार यहाँभी सामान्य विशेष विवक्षा करने पर किसी प्रकार दोष नहीं पाता । जैसे वहाँ प्रतिभास होने के कारण उसे ठीक मान लिया जाता है इसी प्रकार यहाँ भी ठीक मान लेना चाहिए। संशय वहीं होता है जहाँ किसी प्रकार का निश्चय न हो । यहाँ दोनों कोटियों का निश्चय होने के कारण संशय नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार वस्तु का सम्यक ज्ञान होने पर अप्रतिपत्ति दोष भी नहीं लगता । इसलिए स्याद्वाद में कोई दोष नहीं है ।
( प्रमाण मीमांसा अध्याय १ प्राह्निक १ सूत्र ३२) ५६५- आठ वचन विभक्तियाँ
बोलकर या लिखकर भाव प्रकट करने में क्रिया और नाम