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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
से पूर्वपूर्व में प्रसिद्धि आती जाय उसे अनवस्था कहते हैं। - जिस स्वभाव के कारण वस्तु में भेद कहा जाता है और जिसके कारण अभेद कहा जाता है वे दोनों स्वभाव भी भिन्नाभिन्नात्मक मानने पड़ेंगे, नहीं तो वहीं एकान्तवाद आ जायगा । उन्हें भिन्नाभिन्न मानने पर वहाँ भी अपेक्षा बतानी पड़ेगी कि इस अपेक्षा से भिन्न है और अमुक अपेक्षा से अभिन्न । इस प्रकार उत्तरोत्तर कल्पना करने पर अनवस्था दोष है। (४) सङ्कर- सब जगह अनेकान्त मानने से यह भी कहना पड़ेगा कि जिस रूप से भेद है उसी रूप से अभेद भी है। नहीं तो एकान्तवाद आ जायगा । एक ही रूप से भेद और अभेद दोनों मानने से सङ्कर दोष है। (५) व्यतिकर- जिस रूप से भेद है उसी रूप से अभेद मान लेने पर भेद का कारण अभेद करने वाला तथा अभेद का कारणभेद करने वाला हो जायगा। इस प्रकार व्यतिकर दोष है। (६) संशय- भेदाभेदात्मक मानने पर किसी वस्तु का विवेक अर्थात् दूसरे पदार्थों से अलग करके निश्चय नहीं किया जा सकेगा और इस प्रकार संशय दोष आ जायगा। (७) अप्रतिपत्ति- संशय होने पर किसी वस्तु का ठीक ठीक ज्ञान न हो सकेगा और अप्रतिपत्ति दोष आ जायगा। (८)अव्यवस्था-इस प्रकार ज्ञान न होने से विषयों की व्यवस्था भी न हो सकेगी।
दोषों का वारण जैन सिद्धान्त पर लगाए गए ऊपर वाले दोष ठीक नहीं हैं। विरोध उन्हीं वस्तुओं में कहा जा सकता है जो एक स्थान पर न मिलें । जो वस्तुएं एक साथ एक अधिकरण में स्पष्ट मालूम पड़ती हैं उनका विरोध नहीं कहा जा सकता। काला