________________
मीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१०३
अनेकान्तवाद, सप्तभङ्गीवाद या स्याद्वाद है। इसमें एकान्तवादियों की तरफ से आठ दोष दिये जाते हैं । वस्तु को नित्यानित्य, द्रव्यपर्यायात्मक, सदसत् या किसी भी प्रकार अनेकान्तरूप मानने से वे घटाए जाते हैं। (१) विरोध- परस्पर विरोधी दो धर्म एक साथ एक ही वस्तु में नहीं रह सकते । जैसे एक ही वस्तु काले रंग वाली और बिना काले रंग वाली नहीं हो सकती, इसी प्रकार एक ही वस्तु भेद वाली और बिना भेद वाली नहीं हो सकतीं, क्योंकि भेद चाली होना और न होना परस्पर विरोधी हैं। एक के रहने पर दूसरा नहीं रह सकता । विरोधी धर्मों को एक स्थान पर मानने से विरोध दोष आता है। ( २ ) वैयधिकरण्य- जिस वस्तु में जो धर्म कहे जाँय वे उसी में रहने चाहिएं । यदि उन दोनों धर्मों के अधिकरण या आधार भिन्न भिन्न हों तो यह नहीं कहा जा सकता कि वे दोनों एक ही वस्तु में रहते हैं। जैसे- घटस का आधार घट और पटख का अाधार पट है। ऐसी हालत में यह नहीं कहा जा सकता कि घटस और पटव दोनों समानाधिकरण या एक ही वस्तु में रहने वाले हैं। भेदाभेदात्मक वस्तु में भेद का अधिकरण पर्याय
और अभेद का अधिकरण द्रव्य है। इसलिए भेद और अभेद दोनों के अधिकरण अलग अलग हैं। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि भेद और अभेद दोनों एक ही वस्तु में रहते हैं। भिन्न भिन्न अधिकरण वाले धमों को एक जगह मानने में वैयधिकरण्य दोष आता है। (३) अनवस्था, जहाँ एक वस्तु की सिद्धि के लिये दूसरी वस्तु की सिद्धि करना आवश्यक हो और दूसरी के लिये तीसरी, चौथी, इसी प्रकार परम्परा चल पड़े और उत्तरोत्तर की प्रसिद्धि