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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को बदल देता है। एक कर्म दूसरे कर्म के रूप में बदल जाता है। लम्बी स्थिति वाले कर्म छोटी स्थिति
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और तीव्र रस वाले मन्द रस में परिणत हो जाते हैं । कई कर्मों का वेदन विपाक से न होकर प्रदेशों से ही हो जाता है।. कर्म सम्बन्धी उक्त बातें आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करतीं बल्कि पुरुषार्थ के लिये प्रेरित करती हैं । जिन्हें कर्मों की निकाचित आदि अवस्थाओं का ज्ञान नहीं है ऐसे लोगों के लिये कर्मवाद निरन्तर पुरुषार्थ की शिक्षा देता है । पुरुषार्थ और प्रयत्न करने पर भी सफलता प्राप्त न हो वहाँ कर्म की प्रबलता समझकर धैर्य धरना चाहिए। पुरुषार्थ वहाँ भी व्यर्थ नहीं जाता । शेष अवस्थाओं में तो पुरुषार्थ प्रगति की ओर बढ़ाता ही है ।
इस तरह हम देखते हैं कि जैन कर्मवाद में अनेक विशेषताएं हैं और व्यवहारिक तथा पारमार्थिक दृष्टि से इस सिद्धान्त की परम उपयोगिता है ।
(विशेषावश्यक भाष्य अभिभूति गणधर वाद ) ( तत्त्वार्थाधिगम भाग्य अध्याय = ) ( कर्मग्रन्थ भाग १ ) ( भगवती शतक ८ उद्देशा ६ ) ( भगवती शतक १ उद्देश। ४ ) ( उत्तराध्ययन अव्य० ३३ ) ( पत्रवणा पद २३ ) ( द्रव्यलोक प्रकाश सर्ग १० )
५६१ - प्रक्रियावादी आठ
वस्तु के अनेकान्तात्मक यथार्थ स्वरूप को न मानने वाले नास्तिक को क्रियावादी कहते हैं। सभी पदार्थों के पूर्ण स्वरूप को बताते हुए स्वर्ग नरक वगैरह के अस्तित्व को मान कर तदनुसार कर्तव्य या कर्तव्य की शिक्षा देने वाले सिद्धान्त को क्रियावाद कहते हैं। इन बातों का निषेध या विपरीत प्ररूपणा करने वाले सिद्धान्त को अक्रियावाद कहते हैं । अक्रियावादी आठ हैं( १ ) एकबादी- संसार को एक ही वस्तुरूप मानने वाले
द्वैतवादी एकवादी कहलाते हैं । अद्वैतवादी कई तरह के हैं-