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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
(a) द्वैाह्माद्वैत को मानने वाले वेदान्ती । इनके मत से एक ही आत्मा है। भिन्न भिन्न अन्तःकरणों में उसी के प्रतिविम्व अनेक मालूम पड़ते हैं। जिस तरह एक ही चाँद अलग अलग जलपात्रों में अनेक मालूम पड़ता है। दूसरा कोई आत्मा नहीं है। पृथ्वी, जल, तेज वगैरह महाभूत तथा सारा संसार आत्मा का ही विवर्त है अर्थात् वास्तव में सब कुछ आत्मस्वरूप ही है । जैसे अँधेरे में रस्सी साँप मालूम पड़ती है, उसी तरह आत्मा ही भ्रम से भौतिक पदार्थों के रूप में मालूम पड़ता है । इस भ्रम का दूर होना ही मोक्ष है ।
(ख) शब्दाद्वैतवादी - इस मत में संसार की सृष्टि शब्द से ही होती है । ब्रह्म भी शब्दरूप है। इसका नाम वैयाकरणदर्शन भी है । इस दर्शन पर भर्तृहरि का 'वाक्पदीय' नामक मुख्य ग्रन्थ है । (ग) सामान्यवादी - इनके मत से वस्तु सामान्यात्मक ही है । यह सांख्य और योग का सिद्धान्त है ।
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ये सभी दर्शन दूसरी वस्तुओं का अपलाप करने से तथा प्रमाण विरुद्ध अद्वैतवाद को स्वीकार करने से अक्रियावादी हैं। ( २ ) अनेकवादी - बौद्ध लोग अनेकवादी कहलाते हैं। सभी पदार्थ किसी अपेक्षा से एक तथा किसी अपेक्षा से अनेक हैं । जो लोग यह मानते हैं कि सभी पदार्थ अनेक ही हैं, अर्थात् अलग अलग मालूम पड़ने से परस्पर भिन्न ही हैं वे अनेकवादी कहलाते हैं। उनका कहना है- पदार्थों को अभिन्न मानने से जीव जीव, बद्धमुक्त, सुखी दुःखी आदि सभी एक हो जाएंगे, दीक्षा वगैरह धार्मिक कार्य व्यर्थ हो जाएंगे। दूसरी बात यह है कि पदार्थों में एकता सामान्य की अपेक्षा से ही मानी जाती है। विशेष से भिन्न सामान्य नाम की कोई चीज नहीं है । इसलिए रूप से भिन्न रूपत्व नाम की कोई वस्तु नहीं है। इसी तरह