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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह है । पुराना कर्ज चकाने वाले की तरह कर्मवादी शान्त भाव से कर्म का ऋण चुकाता है और सब कुछ चुपचाप सह लेता है। अपनी गल्ती से होने वाला बड़े से बड़ा नुक्सान भी मनुप्य किस तरह चुपचाप सह लेता है यह तो हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं। यही हाल कर्मवादी का भी होता है । भूतकाल के अनुभवों से भावी भलाई के लिये तैयार होने की भी इससे शिक्षा मिलती है। सुख और सफलता में संयत रहने की भी इससे शिक्षा मिलती है और यह आत्मा को उच्छङ्कल और उदंड होने से बचाता है । शंका- पूर्वकृत कर्मानुसार जीव को सुख दुःख होते हैं। किये हुए कर्मों से आत्मा का छुटकारा संभव नहीं है । इस तरह सुरवप्राप्ति और दुरवनिवृत्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है । भाग्य में जो लिखा होगा सो होकर ही रहेगा। सौ प्रयत्न करने पर भी उसका फल रोका नहीं जा सकता। क्या कर्मवाद का यह मन्तव्य आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करता ? ___उत्तर- यह सत्य है कि अच्छा या बुरा कोई कर्म नष्ट नहीं होता । जो पत्थर हाथ से छूट गया है वह वापिस नहीं लौटाया जा सकता । पर जिस प्रकार सामने से वेग पूर्वक प्राता हुआ दूसरा पत्थर पहले वाले से टकराकर उसके वेग को रोक देता है या उसकी दिशा को बदल देता है। ठीक इसी प्रकार किये हुए शुभाशुभ कर्म आत्मपरिणामों द्वारा न्यून या अधिक शक्ति वाले हो जाते हैं, दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और कभी कभी निष्फल भी हो जाते हैं। जैन सिद्धान्त में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन है। कर्म की एक निकाचित अवस्था ही ऐसी है जिसमें कर्मानुसार अवश्य फल भोगना पड़ता है। शेष अवस्थाएं आत्म परिणामानुसार परिवर्तन शील हैं। जैन कर्मवाद का मन्तव्य है कि प्रयत्न विशेष से आत्मा कर्म की
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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