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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पदार्थ के संसर्ग के बिना भी लोग उनकी निंदा करते हैं, तो कई मद्यादि घृणित द्रव्यों के रखे जाने से सदा निन्दनीय समझे जाते हैं। उच्च नीच भेद वाला गोत्र कर्म भी ऐसा ही है । उच्च गोत्र के उदय से जीव धन रूप आदि से हीन होता हुआ भी ऊँचा माना जाता है और नीच गोत्र के उदय से धन रूप आदि से सम्पन्न होते हुए भी नीच ही माना जाता है । गोत्र कर्म की स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त उत्कृष्ट वीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है । 1 ८० जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य, इन आठों का मद न करने से तथा उच्च गोत्र कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से जीव उच्च गोत्र बांधता है। इसके विपरीत उक्त आठों का अभिमान करने से तथा नीच गोत्र कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से जीव नीच गोत्र बांधता है । उच्च गोत्र का अनुभाव आठ प्रकार का है जाति विशिष्टता, कुल विशिष्टता, वल विशिष्टता, रूप विशिष्टता, तप विशिष्टता, श्रुत विशिष्टता, लाभ विशिष्टता और ऐश्वर्य विशिष्टता । उच्च गोत्र का अनुभाव स्वतः भी होता है और परतः भी। एक या अनेक बाह्य द्रव्यादि रूप पुद्गलों का निमित्त पाकर जीव उच्च गोत्र कर्म भोगता है। राजा आदि विशिष्ट पुरुषों द्वारा अपनाये जाने से नीच जाति और कुल में उत्पन्न हुआ पुरुष भी जाति कुल सम्पन्न की तरह माना जाता है। लाठी वगैरह घुमाने से कमजोर व्यक्ति भी बल विशिष्ट माना जाने लगता है । विशिष्ट वस्त्रालंकार धारण करने वाला रूप सम्पन्न मालूम होने लगता है । पर्वत के शिखर पर चढ़कर आतापना लेने से तप विशिष्टता प्राप्त होती है। मनोहर प्रदेश में स्वाध्यायादि करने वाला श्रुतविशिष्ट हो जाता है। विशिष्ट रत्नादि की प्राप्ति द्वारा जीव लाभविशिष्टता का अनुभव करता है और धन सुवर्ण
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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