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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
आदि का सम्बन्ध पाकर ऐश्वर्य विशिष्टता का भोग करता है। दिव्य फलादि के आहार रूप पुद्गलपरिणाम से भी जीव उच्च गोत्र कर्म का भोग करता है। इसी प्रकार स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम के निमित्त से भी जीव उच्च गोत्र कर्म का अनुभव करता है। जैसे अकस्मात् बादलों के आने की बात कही और संयोगवश बादल होने से वह बात मिल गई। यह परतः अनुभाव हुआ । उच्च गोत्र कर्म के उदय से विशिष्ट जाति कुल आदि का भोग करना स्वतः अनुभाव है।
नीच कर्म का आचरण, नीच पुरुष की संगति इत्यादि रूप एक या अनेक पुद्गलों का सम्बन्ध पाकर जीव नीच गोत्र कर्म का वंदन करता है । जातिवन्त और कुलीन पुरुष भी अधम जीविका या दूसरा नीच कार्य करने लगे तो वह निन्दनीय हो जाता है। मुख शय्यादि के सम्बन्ध से जीव बलहीन हो जाता है । मैले कुचले वस्त्र पहनने से पुरुष रूपहीन मालूम होता है । पासत्थे कुशीले आदि की संगति से तपहीनता प्राप्त होती है । विकथा तथा कुसाधुओं के संसर्ग से श्रुत में न्यूनता होती है। देश, काल के अयोग्य वस्तुओं को खरीदने से लाभ का अभाव होता है। कुग्रह, कुभार्यादि के संसर्ग से पुरुष ऐश्वर्य रहित होता है। वृन्ताकी फल (बैंगन) आदि के आहार रूप पुद्गलपरिणाम से खुजली
आदि होती है और इससे जीव रूपहीन हो जाता है। स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम से भी जीव नीच गोत्र का अनुभव करता है। जैसे वादल के बारे में कही हुई बात का न मिलना आदि । यह तो नीच गोत्र कर्म का परतः अनुभाव हुआ । नीच गोत्र कर्म के उदय से जातिहीन कुलहीन होना आदि स्वतः अनुभाव है। (८) अन्तराय कमे- जिस कमे के उदय से आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यशक्तियों का घात होता है अर्थात्