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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
इष्ट यशःकीर्ति, इष्ट उत्थान बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम, इष्ट स्वरता, कान्त स्वरता, प्रिय स्वरता, मनोज्ञ स्वरता। अशुभ नाम कर्म का अनुभाव भी चौदह प्रकार का है। ये चौदह प्रकार उपरोक्त प्रकारों से विपरीत समझने चाहिये ।
शुभ और अशुभ नामकर्म का उक्त अनुभाव स्वतः और परतः दो प्रकार का है । वीणा, वर्णक (पीठी), गन्ध, ताम्बूल, पट्ट (रेशमी वस्त्र), शिविका (पालखी), सिंहासन, कुंकुम, दान, राजयोग, गुटिकायोग आदि रूप एक या अनेक पुद्गलों को प्राप्त कर जीव क्रमशः इष्ट शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, गति, स्थिति, लावण्य, यशःकीर्ति, इष्ट उत्थानादि एवं इष्ट स्वर आदि रूप से शुभ नामकने का अनुभव करता है । इसी प्रकार ब्राह्मी
औषधि आदि आहार के परिणाम स्वरूप पुद्गलपरिणाम से तथा स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम रूप बादल आदि का निमित्त पाकर जीव शुभ नामकर्म का अनुभव करता है । इसके विपरीत अशुभ नामकर्म के अनुभाव को पैदा करने वाले एक या अनेक पुद्गल, पुद्गलपरिणाम और स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम का निमित्त पाकर जीव अशुभ नामकमे को भोगता है । यह परतःअनुभाव हुआ। शुभ अशुभ नामकर्म के उदय से इष्ट अनिष्ट शब्दादि का जो अनुभव किया जाता है वह स्वतः अनुभाव है। (७) गोत्र कर्म- जिस कर्म के उदय से जीव उच्च नीच शब्दों से कहा जाय उसे गोत्र कर्म कहते हैं । इसी कर्म के उदय से जीव जाति कुल आदि की अपेक्षा बड़ा छोटा कहा जाता है। गोत्र कर्मको समझाने के लिये कुम्हार का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे कुम्हार कई घड़ों को ऐसा बनाता है कि लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और कुछ को कलश मानकर उनकी अक्षत चन्दनादि से पूजा करते हैं। कई घड़े ऐसे होते हैं कि निन्ध