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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
और विहायोगति का स्वरूप और इनके भेद यहाँ दिये जाते हैंअङ्गोपाङ्ग नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव के अङ्ग और उपाङ्ग के आकार में पुद्गलों का परिणमन होता है उसे अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं। श्रदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर के ही अङ्ग उपाङ्ग होते हैं, इसलिए इन शरीरों के भेद से अङ्गोपाङ्गनामकर्म के भी तीन भेद हैं- औदारिक अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिक अङ्गोपाङ्ग, आहारक अङ्गोपाङ्ग ।
दारिक अङ्गोपाङ्गनाम कर्म जिस कर्म के उदय से श्रदारिक शरीर रूप परिणत पुगलों से अङ्गोपाङ्ग रूप अवयव बनते हैं उसे दारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं ।
वैकिङ्गोपाङ्गनामकर्म- जिस कर्म के उदय से वैक्रियक शरीर रूप परिणत पुद्गलों से अङ्गोपाङ्ग रूप अवयव बनते हैं उसे वैकिङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं ।
आहारक अंङ्गोपाङ्गनामकर्म - जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर रूप परिणत पुद्गलों से अङ्गोपाङ्ग रूप अवयव बनते हैं वह आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म है ।
गन्धनामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर की अच्छी या बुरी गन्ध हो उसे गन्ध नामकर्म कहते हैं । गन्ध नामकर्म के दो भेद सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध ।
सुरभिगन्ध नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों जैसी सुगन्ध होती है। उसे सुरभिगन्ध नामकर्म कहते हैं ।
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दुरभिगन्ध नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की बुरी गन्ध हो उसे दुरभिगन्ध नामकर्म कहते हैं।
स्पर्श नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर में कोमल रूक्ष आदि स्पर्श हों उसे स्पर्श नामकर्म कहते हैं। इसके आठ भेद हैं