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श्री जैन सिद्धान्त बोल संमह
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. (६) संघात (७) संहनन (८) संस्थान (8) वर्ण (१०) गन्ध
(११) रस (१२) स्पर्श (१३) आनुपूर्वी (१४) विहायोगति । (१) पराघात (२) उच्छ्वास (३) आतप (४) उद्योत (५) अगुरुलघु (६) तीर्थङ्कर (७) निर्माण (८) उपधात। ये आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ हैं। (१) त्रस (२) बादर (३) पर्याप्त (४) प्रत्येक (५) स्थिर (६) शुभ (७) सुभग (८) सुस्वर (8) आदेय (१०) यशः कीर्ति । ये दस भेद त्रसदशक के हैं। इनके विपरीत (१) स्थावर (२) सूक्ष्म (३) अपर्याप्त (४) साधारण (५) अस्थिर (६) अशुभ (७) दुभंग (८) दुःस्वर (8) अनादेय (१०) अयशः कीर्ति । ये दस भेद स्थावरदशक के हैं। . चौदह पिण्ड प्रकृतियों के उत्तर भेद ६५ हैं। मतिनामकर्म के नरकादि चार भेद हैं। जाति नामकर्म के एकेन्द्रियादि पाँच भेद हैं। शरीर नामकर्म के औदारिक आदि पाँच भेद हैं।
अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के तीन भेद हैं। बन्धन और संघात नाम· कर्म के पाँच पाँच भेद हैं। संहनन और संस्थान नामकर्म के छ: छः भेद हैं। वणे, गन्ध, रस और स्पर्श के क्रमशः पाँच,दो, पाँच और आठ भेद हैं। आनुपूर्वी नामकर्म के चार भेद और विहायोगति के दो भेद हैं। . चार गति का स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं०१३१ में दे दिया गया है। पाँच जाति का स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं० २८१ में दे दिया गया है। शरीर, बन्धन और संघात के भेदों का स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं. ३८६, ३६०, ३६१ में है। संहनन और संस्थान के छः छः भेदों का वर्णन इसके द्वितीय भाग बोल नं०४६८ तथा ४७० में दिया गया है। वर्ण और रस के पाँच पाँच भेद इसके प्रथम भाग, बोल नं. ४१४ और ४१५ में हैं। शेष अङ्गोपाङ्ग, गन्ध, स्पर्श, आनुपूर्वी
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