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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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पहिले के दो भेद सभी आरों में होते हैं। देशविरति और सर्वविरति सामायिक उत्सर्पिणी के दुषमसुषमा तथा सुषम दुषमा आरों में तथा अवसर्पिणी के सुषम दुषमा, दुषम सुषमा और दुषमा आरों में होते हैं अर्थात् इन आरों में चारों सामायिक वाले जीव होते हैं । पूर्वघर वहीं आरों में होते हैं ।
नोउत्सर्पिणी
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सर्पिणी काल के क्षेत्र की अपेक्षा चार भाग हैं। देवकुरु और उत्तरकुरु में हमेशा सुषम सुपमा आरा रहता है । हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में सुषमा तथा हैमवत और हैरण्यवत में सुषम दुषमा । पाँच महाविदेह क्षेत्रों में हमेशा दुषम सुषमा आरा रहता है । इन सभी क्षेत्रों में उत्सर्पिणी अर्थात् उत्तरोत्तर वृद्धि या अवसर्पिणी अर्थात् उत्तरोत्तर ह्रास न होने से सदैव एक ही आरा रहता है। इसलिए वहाँ का काल नोउत्सर्पिणी अवसर्पिणी कहा जाता है । भरतादि कर्म भूमियों की जिस आरे के साथ वहाँ की समानता है वही आरा उस क्षेत्र में बताया गया है। इनमें भोगभूमियों के छहीं क्षेत्रों में अर्थात् तीन आरों में श्रुत और चारित्र सामयिक ही होते हैं । पूर्वधर वहीँ भी होते हैं | महाविदेह क्षेत्र में, जहाँ सदा दुषम सुषमा आरा रहता है, चारों प्रकार की सामायिक वाले जीव होते हैं।
जहाँ सूर्य चन्द्रादि नक्षत्र स्थिर हैं ऐसे ढाई द्वीप से बाहर द्वीप समुद्रों में चन्द्र सूर्य की गति न होने से अकाल कहा जाता है । वहाँ सर्वविरति चारित्र सामायिक के सिवाय बाकी तीनों सामायिक मत्स्यादि जीवों में होते हैं।
नन्दीश्वर द्वीप में विद्याचाररणादि मुनियों के किसी कार्य - वश जाने से वहाँ चारित्र सामायिक भी कहा जा सकता है । पूर्व भी वहाँ इसी तरह हो सकते हैं।