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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
किसी दूसरे जीव का, वहाँ पर्यायों का आधार भिन्न होने से द्रव्य भी भिन्न है । इस तरह सत्व का कथन किया गया। (६) अगुरुलघुत्व-जिस द्रव्य में अगुरुलघु पर्याय है,उसमें हानि
और वृद्धि होती है ।वृद्धि का अर्थ है उत्पत्ति और हानि का अर्थ है नाश । वृद्धि छः प्रकार की है (१) अनन्त भाग वृद्धि,(२) असंख्यात भाग वृद्धि, (३) संख्यात भाग वृद्धि, (४) संख्यात गुण वृद्धि,(५) असंख्यात गुण वृद्धि, (६) अनन्त गुण वृद्धि । हानि के भी छः प्रकार हैं-(१) अनन्त भाग हानि, (२) असंख्यात भाग हानि, (३) संख्यात भाग हानि, (४) संख्यात गुण हानि, (५) असंख्यात गुण हानि, (६) अनन्त गुण हानि । वृद्धि और हानि सभी द्रव्यों में हर समय होतो रहती है । जो गुरु भी न हो और हल्का भी न हो उसका नाम अगुरुलघु है। यह स्वभाव सभी द्रव्यों में है । श्री भगवती सूत्र में कहा है कि“सब्बदव्वा,सव्वगुणा,सब्बपएसा, सव्वपज्जवा, सम्बद्धा अगुरुलहुआए"। सभीद्रव्य,सभीगण,सभी प्रदेश,सभी पर्याय और समस्त काल अगुरुलघु है। इस अगुरुलघु स्वभाव का आवरण नहीं है । आत्मा का अगुरुलघु गुण है, आत्मा के सभी प्रदेशों में क्षायिकभाव होने पर सर्व गुण साधारणतया परिणत होते हैं। अधिक या न्यून रूप से परिणत नहीं होते । इस प्रकार अगुरुलघु गुण का परिणाम जानना चाहिये । अगुरुलघु गुग्ण को गोत्र कर्म रोकता है अर्थात् गोत्र कर्म के नष्ट होने पर आत्मा का अगुरुलघु गुण प्रकट होता है । इस तरह छहों सामान्यगुणों का वर्णन हुआ।
(मागमसार)