________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 441 करता है , वह न अकेला अस्ति कर सकता है और न अकेला नास्ति / यद्यपि एक और दो मिल कर तीन होते हैं, फिर भी तीन की संख्या एक और दो से जदी मानी जाती है / __ वस्तु के अनेक धर्मों को हम एक साथ नहीं कह सकते,इसलिए युगपत्, स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है / वस्तु के अवक्तव्य होने का दूसरा कारण यह भी कहा जा सकता है कि वस्तु में जितने धर्म हैं, उतने शब्द नहीं हो सकते और हम लोगों को उन सब धर्मों का ज्ञान भी नहीं हो सकता जिससे उन सब को शब्दों से कहने की चेष्टा की जाय / तीसरी बात यह है कि प्रत्येक वस्तु स्वभाव से अवक्तव्य है। वह अनुभव में तो आसकती है, परन्तु शब्दों के द्वारा नहीं कही जा सकती। रसों का अनुभव रसनेन्द्रिय द्वारा ही हो सकता है। शब्दों द्वारा नहीं। इसलिये वस्तु अवक्तव्य है, लेकिन अन्य दृष्टियों से वक्तव्य भी है। इसलिये जब हम प्रवक्तव्य के साथ किसी रूप में वस्तु की वक्तव्यता भी कहना चाहते हैं तब वक्तव्यरूप तीनों भङ्ग अवक्तव्य के साथ मिल जाते हैं / इसलिये अस्ति अवक्तव्य,नास्ति अवक्तव्य और अस्ति नास्ति अवक्तव्य इन भङ्गों का प्रयोग होता है। (सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध 2 अध्ययन 5 गा० 10-12 की टीका) (प्रागमसार ) (सप्तभंगी न्याय, स्याद्वादमंजरी) (रत्नाकरावतारिका)