________________ 398 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कह देने पर कोई दोष नहीं लग सकता / शास्त्रों में वचन की अपेक्षा मन को प्रधान बताया है। वचन पर कुछ भी निर्भर नहीं है। दोषादोष को व्यवस्था भी मन पर ही आश्रित है / __शास्त्र में आया है-- एक व्यक्ति ने त्रिविध आहार त्याग करने का अध्यवसाय किया। चतुर्विध आहार के त्याग की आदत होने से उसके मुंह से निकला 'चार तरह के आहार का त्याग करता हूँ।' इस तरह का उच्चारण होने पर भी उसका त्याग त्रिविधाहार ही माना जायगा। चतुर्विध आहार वचन से कहने पर भी मन में न होने से नहीं माना जायगा / इस प्रकार आगम भी मन के सामने वचन को अप्रमाण मानता है / यदि मन में यावज्जीवन त्याग की भावना है तो उतना ही त्याग माना जायगा। वचन से ऐसा न कहने पर मिथ्यात्व दोष लगेगा। __ इस प्रकार युक्तियों से समझाया जाने पर भी जब वह नहीं माना तो पुष्पमित्र उसे गच्छ के दूसरे बहुश्रुत और स्थविरों के पास लेगये। उन्होंने भी कहा, जैसा प्राचार्य कहते हैं, वही ठीक है / आचार्य आर्यरक्षित ने भी ऐसा ही कहा था, न्यूनाधिक नहीं / गोष्ठामाहिल ने कहा-आप ऋषिलोग क्या जानते हैं ? जैसा मैं कहता हूँ, तीर्थङ्करों ने वैसा ही उपदेश दिया है। स्थविर बोले- तुम झूठी जिद्द कर रहे हो / तीर्थङ्करों की अशातना मत करो। तुम इस विषय में विशेषज्ञ नहीं हो / ___ इस प्रकार विवाद बढ़ जाने पर उन्होंने संघ इकट्ठा किया। सारे संघ ने देवता को बुलाने के लिये कायोत्सर्ग किया। इससे भद्रिका नाम की देवी आई। वह बोली-आज्ञा दीजिए, क्या करूँ?वास्तविक बात को जानते हुए भी सब लोगोंको विश्वास दिलाने के लिये संघ ने कहा-'महाविदेह क्षेत्र में जाकर तीर्थङ्कर से पूछो। क्या दुर्बलिका पुष्पमित्र और संघ की बात सच्ची है, अथवा गोष्ठामाहिल की?