________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 397 इसीलिए यावज्जीवन पद लगाया जाता है। विरति का आवरण करने वाले कर्मों का क्षयोपशम होने से इस जन्म में व्रतों का पालन अपने अधीन है / स्वर्ग में उन कर्मों का उदय होने से अपने हाथ की बात नहीं है। वहाँ व्रत का पालन शक्य नहीं है / इसीलिये इस जन्म के लिये त्याग किया जाता है। अगले जन्म में व्रत टूटने न पावें, इसलिये 'यावज्जीवाए' पद लगाया जाता है। प्राशंसा दोष की वहाँ सम्भावना नहीं है। शंका- व्रत भङ्ग से डरकर यावज्जीवाए पद लगाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मरने पर जीव मोक्ष में चला जायगा। वहाँ कामभोगों के न होने से व्रत टूटने नहीं पायेंगे / उत्तर- आज कल यहाँ से कोई मोक्ष में नहीं जाता। महाविदेह क्षेत्र में से भी सभी का जाना निश्चित नहीं है। शंका- जो जीव मोक्ष जाता है उसके लिये तो अपरिमाण प्रत्याख्यान ही ठीक है। ___उत्तर- यह भी ठीक नहीं है / जो जीव मुक्त हो गया, अपना प्रयोजन सिद्ध कर चुका फिर उसे व्रतों की आवश्यकता नहीं है। जो व्यक्ति यह जानता है कि मैं मरकर स्वर्ग में जाऊँगा, वह अगर ' यावज्जीवाए' पद को छोड़कर त्याग करे तो उसे मृषावाद दोष भी लगेगा। दूसरी बात यह है कि यह त्याग मरने तक के लिये ही होता है या उससे बाद के लिये भी ? यदि दूसरा पक्ष मानते हो तो स्वर्ग में व्रतों का टूटना मानना पड़ेगा / यदि मरने तक के लिये ही त्याग है तो ‘यावज्जीवाए' पद देने में हानि ही क्या है ? मन में यावज्जीवाए त्याग का निश्चय करके ऊपर से न बोले तो माया ही कही जायगी क्योंकि मन में कुछ और वचन से कुछ और। यदि त्याग जीवन पर्यन्त ही करना है तो वचन से उसे