________________ 396 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला लिखा है, सिद्ध न संयत हैं नअसंयत हैं और न संयतासंयत हैं। __सदा के लिये त्याग मानने पर पौरुषी,दो पौरुषी, एकासन, उपवासादि का कोई स्थान न रहेगा, क्योंकि इन सब का समय की सीमा के साथ ही त्याग होता है। जैसे पौरुषी एक पहर तक, दो पौरुषी दो पहर तक / एकासना भी एक दिन के लिये ही होती है। इसलिये दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है। तीसरे अपरिच्छेद रूप अपरिमाण पक्ष का खण्डन करते हैं। इस पक्ष में भी वे ही दोष आते हैं, क्योंकि बिना काल परिमाण के प्रत्याख्यान या त्याग करने वाला उसका पालन घड़ी, दो घड़ी करेगा या भविष्य में सदा के लिये? पहिले पक्ष में अनवस्था है, क्योंकि यदि वह एक घड़ी पालन करता हो तो दो घड़ी क्यों न करे ?दो घड़ी करता हो तो तीन क्यों नहीं कर लेता ? इस प्रकार कोई व्यवस्था नहीं रहती। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे मरने के बाद भी भोग भोगने से व्रत का टूटना मानना पड़ेगा / सिद्ध भी संयत हो जायँगे / एकासनादि प्रत्याख्यान न होंगे। इन्हीं दोषों को हटाने के लिये शास्त्र में साधुओं के लिये यावज्जीवन त्याग का विधान किया गया है / इससे व्रत भी नहीं टूटने पाते और दोष भी नही लगते। __ शंका-- यावज्जीवन पद लगाने से ' मरने के बाद मैं भोगों को भोगँगा' इस तरह की आशंसा बनी रहती है। इसलिये आशंसा दोष है। उत्तर- दूसरे जन्म में भोग भोगने के लिये यावज्जीवन पद नहीं लगाया जाता ।साधु के लिये स्वर्ग की आकांक्षा निषिद्ध है। वह तो सब कुछ मोक्ष के लिये ही करता है। इसलिये आशंसा दोष की सम्भावना नहीं है / दूसरे जन्म में व्रत न टूटने पावें