________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 383 गंध,स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, महत्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न / कर्म पाँच हैं-उत्क्षेपण, अवक्षेपण,आकुश्चन,प्रसारण,गमन / सामान्य के तीन भेद हैं -सत्ता, सामान्य, और सामान्य विशेष / इस प्रकार नौ द्रव्य, सतरह गुण, पाँच कर्म, तीन सामान्य, विशेष और समवाय को मिला कर छत्तीस पदार्थ होते हैं। इन में से प्रत्येक के विषय में षडुलूक ने चार तरह की पृच्छा की प्रकृति अर्थात् वस्तु के मूल रूप के विषय में जैसे 'पृथ्वी' लाओ'। अकार के साथ (जिसका अर्थ निषेध है) 'अपृथ्वी' लायो / दोनों के साथ नो लगाकर जैसे नोपृथ्वी लाओ और नोअपृथ्वी लाओ / इस तरह कुल मिला कर एक सौ चवालीस तरह की पृच्छा हुई। . कुत्रिकापण देव ने तीन तरह की वस्तुएं लाकर दी, क्योंकि चौथे विकल्प का पहिले में अन्तर्भाव हो जाता है। पृथ्वी कहने से ढेला, अपृथ्वी कहने से जलादि और नोपृथ्वी कहने से देले का एक देश लाया गया। इस तरह का व्यवहार भी व्यवहार नय को मान कर किया गया है क्योंकि व्यवहार नय से देश और देशी ( सम्पूर्णवस्तु ) का भेद माना गया है। निश्चय नय के मत से तो पृथ्वी और अपृथ्वी दो ही वस्तुएं हैं। देश और देशीका भेद इस में नहीं माना गया है / इसलिये 'नोपृथ्वी' वाला पक्ष भी नहीं बन सकता / पृथ्वी जल वगैरह सावयव वस्तुओं के मांगने पर देव ने व्यवहार नय का अवलंबन लेकर तीन प्रकार की वस्तुएं दीं / निश्चय नय से तो दो ही प्रकार का उत्तर हो सकता था। जब रोहगुप्त ने जीव मांगा तो देव शुक सारिकादि ले आया। अजीव मांगने पर पत्थर का टुकड़ा ले आया। नोजीव मांगने