________________
३४८
श्रीसेठिया जैन ग्रन्थमाला
क्रियमाण को कृत मानने से कृत अर्थात् विद्यमान को ही क्रिया का आश्रय मानना पड़ेगा । इस में प्रत्यक्ष विरोध है क्योंकि अकृत अर्थात् अविद्यमान पदार्थ को ही उत्पन्न करने के लिए क्रिया की जाती है, न कि विद्यमान को। ___क्रिया के प्रारम्भ क्षण में ही कार्य उत्पन्न हो जाता है। इस मान्यता में भी प्रत्यक्ष विरोध है क्योंकि घट पट वगैरह कार्य क्रियासमाप्ति के साथ ही उत्पन्न होते देखे जाते हैं । क्रिया का काल लम्बा होने पर भी कार्य की उत्पत्ति प्रथम क्षण में ही हो जाती है। यह कहनाभी ठीक नहीं है, क्योंकि घट पटादि कार्य न तो प्रथम क्षण में दिखाई पड़ते हैं, न बीच में। जब क्रिया समाप्त होने लगती है तभी वे दृष्टिगोचर होने लगते हैं । इस लिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि क्रिया के अन्तिम सयम में ही घटादि कार्य कृत कहे जा सकते हैं।
उत्तरपक्ष- अकृत या अविद्यमान वस्तु ही उत्पन्न होती है। यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुमान से बाधित है । जैसेअकृत या अविद्यमान घटादि उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि असत् हैं। जो असत् होता है वह उत्पन्न नहीं हो सकता। जैसे गगनकुसुम । यदि अकृत अर्थात् अंविद्यमान की भी उत्पत्ति मान ली जाय तो गगनकुसुम भी उत्पन्न होने लगेंगे। क्रिया के प्रथम क्षण में ही वस्तु की उत्पत्ति मान लेने से . नित्यक्रिया, क्रियाऽपरिसमाप्ति, क्रियावैफल्प आदि दोष
आजावेंगे। यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ये दोष दोनों पक्षों में समान हैं । वस्तु को अकृत अर्थात् अविद्यमान मान लेने पर क्रिया का कोई आधार न रहेगा। ऐसी हालत में क्रिया कहाँ होगी ? इस के विपरीत वस्तु को विद्यमान मान लेने पर पर्याय विशेष की उत्पत्ति के लिए क्रियांकरण आदि