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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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चरितार्थ हो सकते हैं। जैसे कहा जाता है- 'जगह करो' अर्थात् जगह को खाली करो । यहाँ जगह पहले से विद्यमान है । उसी को ' भरी हुई' पर्याय से बदल कर ' खाली ' पर्याय में लाने के लिए ' जगह करो' यह कहा जाता है। इसी तरह ' हाथ करो ' ' पीठ करो' इत्यादि भी जानने चाहिएं । जो वस्तु बिल्कुल असत् है उसमें यह व्यवहार नहीं हो सकता ।
यदि कारणावस्था में असत् वस्तु भी उत्पन्न होती है तो मिट्टी से भी गगनकुसुम उत्पन्न होने लगेगा | क्योंकि अस दोनों में बराबर है । यदि खरविषार नहीं होता तो घट भी न हो । अथवा इसका उल्टा ही होने लगे ।
'वस्तु की उत्पत्ति कई क्षणों में होती है' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक समय में भिन्न भिन्न कार्य उत्पन्न होते रहते हैं । मिट्टी लाना, भिगोना, पिण्ड बनाना, चाक पर चढ़ाना इत्यादि बहुत से कार्यों में बहुत समय लगते हैं। किसी एक ही क्रिया में अनेक समय नहीं लगते । इस लिए यह नहीं कहा जा सकता कि घट की उत्पत्ति कई क्षणों में हुई है । क्रिया जिस क्षण में होती है, निश्चय नय से वह उसी क्षण में पूरी हो जाती है। किसी एक क्रिया में अनेक समयों की श्रावश्यकता नहीं है । घटोत्पत्ति की क्रिया अन्तिम क्षण में प्रारम्भ होती है और उसी क्षण में पूरी हो जाती है। इस तरह किसी भी एक क्रिया के लिये अनेक समय की आवश्यकता नहीं है।
'घट प्रथम क्षण में या बीच में क्यों नहीं दिखाई देता ?' प्रश्न का उत्तर भी ऊपर लिखी युक्ति से हो जाता है । घट को उत्पन्न करने की क्रिया अन्तिम क्षण में होती है, उसी समय वह कृत होता है और दिखाई भी देने लगता है। उससे पहिले क्षणों में पिण्डादि के लिए क्रियाएं होती हैं, इस लिए पूर्वक्षणों में घट