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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
भाग को लेकर यह कहा जाता है। पीठादि सभी की अपेक्षा तो व कामविष्ट नरकावास गोल, चौरस और त्रिकोण. आकार वाले हैं। प्रकीर्णक नरकावास विविध संस्थानों वाले हैं।
भूमियों के नीचे का फर्श खुरप्र अर्थात् कील या चाकू सरीखा है। बालू वगैरह होने पर भी पैर रखते ही ऐसी पीड़ा होती है जैसे पैर में चाकू लग गया हो या कील चुभ गई हो । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे सभी का अभाव होने से नित्य घोर अन्धकार रहता है। तीर्थङ्करों के जन्म, दीक्षादि के समय होने वाले क्षणिक प्रकाश को छोड़कर वहाँ निबिड़ अन्धकार सदा बना रहता है । वहाँ की जमीन हमेशा चर्बी, राध, मांस, रुधिर वगैरह अशुचि पदार्थों से लिपी रहती है । देखने से घृणा पैदा होती है। मरी हुई गाय के कलेवर से भी बहुत अधिक महादुर्गन्धि भरी होती है। काले रंग वाली अग्निज्वाला की तरह उन की आभा होती है । असिपत्र की तरह अत्यन्त कठोर और असह्य स्पर्श होता है। जहाँ दुःख से रहा जाय तथा जिसके दर्शन ही अशुभ हों ऐसे नरक होते हैं । गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श सभी शुभ होते हैं । इसी तरह सभी पृथ्वियों में एक हजार योजन ऊपर तथा एक हजार योजन नीचे छोड़ कर बीच में नरकावास हैं। नरकावासों की संख्या पहिले दी जा चुकी है। सातवीं का बाहल्य एक लाख आठ हजार योजन है । उस में साढ़े बावन हजार ऊपर तथा साढ़े बावन हजार नीचे छोड़ कर बाकी तीन हजार योजन के बाहल्य पाँच महानरक हैं । उनके नाम पहिले दिये जा चुके हैं।
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नरकावासों का संस्थान- पहिले बताया जा चुका है कि नरकावास दो तरह के हैं- आवलिकाप्रविष्ट और यावलिकाबाह्य । आठों दिशाओं में जो समश्रेणी में अवस्थित हैं वे आवलिका