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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रविष्ट हैं । बाकी आवलिकाबाह्य हैं। आवलिकाप्रविष्ट नरकावासों का संस्थान गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण है। आवलिकाबाह्य भिन्न भिन्न संस्थान वाले हैं। कोई लोहे की कोठी के समान है। कोई भट्टी के समान । कोई चूल्हे के समान । कोई कड़ाहे के समान । कोई देगची के समान, इत्यादि अनेक संस्थानों वाले हैं। छठी नारकी तक नरकावासों का यही स्वरूप है। सातवीं नारकी के पांचों नरकावास प्रावलिकाप्रविष्ट हैं। उनके बीच में अप्रतिष्ठान नाम का नरकेन्द्रक गोल है। बाकी चारों चार दिशाओं में हैं और सभी त्रिकोण हैं।
सातों पृथ्वियों में प्रत्येक नरकावास का बाहल्य अर्थात् मोटाई तीन हजार योजन है। नीचे का एक हजार योजन निबिड़ अर्थात् ठोस है।बीच का एक हजार योजन खाली है। ऊपर का एक हजार योजन संकुचित है।
इन नरकावासों में कुछ संख्येयविस्तृत हैं और कुछ असंख्येय विस्तृत।जिन का परिमाण संख्यात योजन है वे संख्येयविस्तृत हैं और जिन का परिमाण असंख्यात योजन है वे असंख्येयविस्तृत हैं। असंख्येयविस्तृतों की लम्बाई, चौड़ाई और परिधि असंख्यात हजार योजन है। संख्येयविस्तृतों की संख्यात हजार योजन । सातवीं नरक में अप्रतिष्ठान नाम का नरकेन्द्रक एक लाख योजन विस्तृत है। बाकी चार नरकावास असंख्येयविस्तृत हैं। अप्रतिष्ठान नामक संख्येयविस्तृत नरकावास का आयाम तथा विष्कम्भ अर्थात् लम्बाई चौड़ाई एक एक लाख योजन है। तीन लाख सोलह हजार दो सौ सताईस योजन, तीन कोस, अठाईस सौ धनुष, तथा कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल उनकी परिधि है। परिधि का यह परिमाण जम्बूद्वीप की परिधि की तरहगणित के हिसाब से निकलता है। बाकी चारों का असंख्यात