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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
प्रत्येक पृथ्वी की मोटाई अन्तिम तथा मध्य भाग में बराबर ही है। रत्नप्रभा में जितने नारकी जीव हैं वे प्रायः सभी, जो व्यवहार राशि वाले हैं, पहिले नरक में उत्पन्न हो चुके हैं लेकिन सभी एक ही समय में उत्पन्न हुए थे, ऐसा नहीं है । इसी तरह शर्कराप्रभा आदि सभी नरकों में समझना चाहिए। इसी तरह व्यवहार राशि वाले प्रायः सभी जीव इस नरक को छोड़ चुके हैं, लेकिन ने एक साथ नहीं छोड़ी। इसी तरह लोकवर्ती सभी पुद्गल रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के रूप में परिणत हो चुके हैं । वे भी एक साथ परिणत नहीं हुए । इसी प्रकार सभी पुद्गलों द्वारा यह छोड़ी जा चुकी है। संसार के अनादि होने से ये सभी बातें बन सकती हैं। जगत् में स्वभाव से ही पुद्गल और जीवों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन लगा रहता है।
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सभी पृथ्वियाँ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं अर्थात् सभी के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श बदलते रहते हैं लेकिन द्रव्य रूप से कभी नाश नहीं होता । यह बात धर्मसंग्रहणी की टीका में विस्तार से दी गई है। एक पुद्गल का अपचय ( हास) होने पर भी दूसरे पुद्गलों का उपचय (वृद्धि) होने से इन पृथ्वियों का अस्तित्व सदा बना रहता है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों में इनका अस्तित्व पाया जाता है इसलिए ये पृथ्वियाँ ध्रुव हैं। नियत अर्थात् हमेशा अपने स्थान पर स्थित हैं । अवस्थित अर्थात् अपने परिमाण से कभी कम ज्यादा नहीं होतीं ।
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arer पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर तथा एक हजार योजन नीचे छोड़कर बाकी एक लाख अठत्तर हजार योजन की मोटाई में तीस लाख नरकावास हैं। ये नरकावास अन्दर से गोल और बाहर से चौरस हैं। पीठ के ऊपर रहे हुए मध्य