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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
से निकल कर नारकी जीव मनुष्य हो भी सकते हैं, नहीं भी। किन्तु उन में सर्वविरति रूप चारित्र नहीं आ सकता। सातवीं से निकल कर तिर्यश्च ही होते हैं उन्हें मनुष्यत्व भी प्राप्त नहीं होता। ___ आगति- असंज्ञी अर्थात् सम्मूर्छिम तियश्च पहिली नरक तक ही जाते हैं उससे नीचे की नरकों में नहीं जाते । सम्मूर्छिम मनुष्य अपर्याप्तावस्था में ही काल कर जाते हैं इसलिए वे नरक में नहीं जाते । असंज्ञी तिर्यञ्च भी जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयुष्य वाले ही होते हैं। सरीसृप अर्थात् भुजपरिसपे जैसे- गोह नकुल वगैरह दूसरी नरक तक ही जा सकते हैं । गर्भज पक्षी गिद्ध वगैरह तीसरी नरक तक ही जा सकते हैं। सिंह तथा उस जाति के चौपाए जानवर चौथी नरक तक ही जा सकते हैं । गर्भज उरग अर्थात् साँप वगैरह पाँचवीं नरक तक ही जा सकते हैं। गर्भज मत्स्य, जलचर और मनुष्य जो बहुत क्रूर अध्यवसाय वाले होते हैं वे सातवीं नरक में पैदा होते हैं। यह उत्पत्ति उत्कृष्ट बताई गई है । जघन्यरूप से सभी जीव नरक के पहिले प्रतर में तथा मध्यम रूप से दूसरे प्रतर से लेकर मध्य के स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं। __ नारकी जीव नरक से निकल कर बहुलता से साँप, व्याघ्र, सिंह, गिद्ध, मत्स्य आदि जातियों में संख्यात वर्ष की आयुस्थिति वाले होकर क्रूर अध्यवसाय से पञ्चेन्द्रियवध वगैरह करते हुए फिर नरक में चले जाते हैं। यह बात बहुलता से कही गई है, क्योंकि कुछ जीव मनुष्य या तिर्यश्च में सम्यक्त्व पाकर शुभगति भी प्राप्त कर सकते हैं।
(पनवण्ण पद २० ) (प्रश्नव्याकरण मानवद्वार १)
(प्रवचनसारोद्धार १७२ से १८४)