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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पूर्व जन्म में क्रूरक्रिया तथा संक्लिष्ट परिणाम वाले हमेशा पाप में लगे हुए भी कुछ जीव पंचाग्नि तप वगैरह अज्ञान पूर्वक किए गए कायाक्लेश से आसुरी अर्थात् राक्षसी गति को प्राप्त करते हैं। वे ही परमाधार्मिक बनकर पहली तीन नरकों में कष्ट देते हैं । जिस तरह यहाँ मनुष्य भैंसे, मेंढे और कुक्कुर के युद्ध को देख कर खुश होते हैं उसी तरह परमाधार्मिक भी कष्ट पाते हुए नारकी जीवों को देख कर खुश होते हैं। खुश होकर अट्टहास करते हैं, तालियाँ बजाते हैं। इन बातों से परमाधार्मिक बड़ा आनन्द मानते हैं। ___ उद्वर्तना- पहिली तीन नरकों से निकल कर जीव तीर्थङ्कर हो सकते हैं अर्थात् नरक में जाने से पहिले जिन जीवों ने तीर्थङ्कर गोत्र बाँध लिया है वे रत्नप्रभा, शर्करापभा और वालुकाप्रभा से निकल कर तीर्थकर हो सकते हैं जैसे श्रेणिक महाराज । चौथी नरक से निकल कर जीव केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं लेकिन तीर्थङ्कर नहीं हो सकते । पाँचवी से निकल कर सर्वविरति रूप मुनिवृत्ति तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन केवली नहीं हो सकते। छठी से निकल कर देशविरति रूप श्रावकपने की प्राप्ति कर सकते हैं, साधु नहीं हो सकते । सातवीं से निकल कर सम्यग्दर्शन रूप सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं. व्रत अङ्गीकार नहीं कर सकते ।
संक्षेप में पहिली तीन से निकल कर तीर्थङ्कर, चौथी से निकल कर केवलज्ञानी,पाँचवी से निकल कर संयमी, छठी से निकल कर देशविरत ओर सातवीं से निकल कर सम्यक्त्वी हो सकते हैं।
ऋद्धि की अपेक्षा से उद्वर्तना इस प्रकार है । पहिली से निकल कर चक्रवर्ती हो सकते हैं और किसी से निकल करनहीं। दूसरी तक से निकल कर बलदेव या वासुदेव हो सकते हैं। तीसरी से अरिहन्त । चौथी से चरम शरीरी। छठी तमःप्रभा