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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
तक उत्कृष्ट अवधिज्ञान होता है । शर्कराप्रभा में साढ़े तीन गव्यूति अर्थात् सात मील, वालुकाप्रभा में तीन गव्यूति अर्थात् छः मील, पङ्कप्रभा में अढाई गव्यूति अर्थात् पांच मील, धूमप्रभा में दो गव्यूति अर्थात् चार मील, तमः प्रभा में डेढ़ गव्यूति अर्थात् तीन मील, सातवीं महातमः प्रभा में एक गव्यूति अर्थात् दो मील । ऊपर लिखे हुये परिमाण में से आधी गव्यूति अर्थात् एक मील कम कर देने पर प्रत्येक नरक में जघन्य अवधिज्ञान का परिमाण निकल आता है अर्थात् पहिली रत्नप्रभा में जघन्य साढ़े तीन गव्यूति
ज्ञान होता है | दूसरी में तीन, तीसरी में ढाई, चौथी में दो, पांचवी में डेढ़, छठी में एक और सातवीं में आधी गव्यूति अर्थात् एक मील ।
परमाधार्मिक- तीसरी नारकी तक जीवों को परमाधार्मिकों के कारण भी कष्ट मिलता है । परमाधार्मिकों के पन्द्रह भेद हैं। (१) अम्ब - असुर जाति के जो देव नारकी जीवों को आकाश में ले जाकर एक दम छोड़ देते हैं।
( २ ) अम्बरीष - जो नारकी जीवों के छुरी वगैरह से छोटे छोटे टुकड़े करके भाड़ में पकने योग्य बनाते हैं ।
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( ३ ) श्याम - जो रस्सी या लात घूँसे वगैरह से नारकी जीवों को पीटते हैं और भयङ्कर स्थानों में पटक देते हैं तथा काले रंग के होते हैं वे श्याम कहलाते हैं।
( ४ ) शक्ल - जो शरीर की आन्तें, नसें और कलेजे आदि को बाहर खींच लेते हैं तथा शबल अर्थात् चितकबरे रंग वाले होते हैं उन्हें शबल कहते हैं।
(५) रौद्र - जो शक्ति और भाले वगैरह में नारकी जीवों को पिरो देते हैं, बहुत भयङ्कर होने के कारण उन्हें रौद्र कहते हैं। (६) उपरौद्र- जो उनके अंगोपांगों को फोड़ डालते हैं वे उपरौद्र हैं।