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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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में अन्य द्रव्य जब तक उपस्थित रहता है तब तक दूसरी लेश्या हो जाती है किन्तु उस के हटते ही फिर पहिली लेश्या आ जाती है। इसी लिए देव और नारकी जीवों के अलग अलग लेश्याएं बताई गई हैं । पन्नवणा सूत्र के सतरहवें लेश्यापद में यही बात बताई गई है । इसी तरह सातवीं नरक में भी जब कृष्ण लेश्या, तेजोलेश्या आदि के द्रव्यों को प्राप्त करके तदाकार या उसके प्रतिबिम्ब वाली हो जाती है। उस समय स्थायी रूप से कृष्णलेश्या के होने पर भी तेजोद्रव्य के सम्पर्क से नारक जीव के शुभपरिणाम आ जाता है, जैसे जवाकुसम के सान्निध्य से स्फटिक में लालिमा आ जाती है। उन परिणामों के समय उस जीव के सम्यक्त्व प्राप्ति हो सकती है । इस से यह नहीं समझना चाहिए कि सातवीं नरक में तेजोलेश्या हो गई तो केवल कृष्णलेश्या का बताना असंगत है, क्योंकि वहां स्थायी रूप से कृष्णलेश्या ही रहती है। दूसरी लेश्या आने पर भी वह ठहरती नहीं है। कुछ देर स्थिर रहने पर भी कृष्ण लेश्या के परमाणु अपना स्वरूप नहीं छोड़ते। इसीलिए सूत्रों में कृष्ण लेश्या ही बताई जाती है। इसी तरह संगम आदि देवों के स्वाभाविक रूप से तेजो लेश्या होने पर भी कभी कभी कृष्ण द्रव्यों के संयोग से वैसे परिणाम आ सकते हैं और उस समय वह भगवान् महावीर सरीखे तीन भुवनों के स्वामी को भी कष्ट दे सकता है । भावपरावृत्ति के कारण नारक जीवों के जो छहों लेश्याएं बताई जाती हैं वे भी इसी तरह उपपन्न होजाती हैं। स्थायी रूप से तीन ही लेश्याएं रहती हैं। लेश्याओं को बाह्य वर्ण रूप मान लेने पर प्रज्ञापना सूत्र में की गई वर्ण और लेश्याओं की अलग अलग पृच्छा असंगत हो जायगी । अवधिज्ञान- रत्नप्रभा में चार गव्यूति अर्थात् आठ मील