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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पद्म और शुक्ल लेश्या वाले जीवों के ही सम्यक्त्व का होना बताया गया है। ऊपर की तीन लेश्याएं उन जीवों के नहीं हैं। सातवीं पृथ्वी में कृष्ण लेश्या ही है। नारकियों के तीन ही लेश्याएं होती हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शास्त्र में नारकों के तीन द्रव्य लेश्याएं बताई गई हैं । भावों के परिवर्तन की विवक्षा सेतो देव और नारकों में छहों लेश्याएं हैं । इस लिए नारकी जीवों की ये तीन लेश्याएं और देवों की ऊपर की तीन लेश्याएं बाह्य वर्ण रूप द्रव्य लेश्याएं समझनी चाहिएं।
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यह ठीक नहीं है । लेश्या का अर्थ शुभाशुभ परिणाम है। उसके उत्पन्न करने वाले कृष्णादि रूप द्रव्य नारकों के हमेशा पास रहते हैं। इन कृष्णादि रूप द्रव्यों से जीव के जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, मुख्य रूप से वे ही लेश्याएं हैं। गौगा रूप से कारण में कार्य का उपचार करने पर कृष्णादि द्रव्य भी लेश्या कहलाते हैं । नारक और देवों के वे द्रव्य द्रव्यलेश्या हैं । वे द्रव्य देव और नारकों के हमेशा साथ रहते हैं । ये लेश्याद्रव्य मनुष्य और तिर्यों में किसी दूसरी लेश्या का आवेग होने पर उसी लेश्या के रूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे श्वेत वस्त्र मष्ठादि से रंगने पर दूसरे रंग का हो जाता है । इसी तरह पहिली लेश्या अपने स्वरूप को छोड़ कर सर्वथा दूसरे रूप में परिणत हो जाती है। नारक और देवों में किसी दूसरे लेश्या के द्रव्यों का सम्पर्क होने पर तदाकारता या उस का प्रतिबिम्ब मालूम पड़ता है, स्वरूप का परिवर्तन नहीं होता। जैसे वैडूर्यमणि में काला धागा पिरोने से उस पर थोड़ी सी काली छाया पड़ती है, अथवा स्फटिकादि के पास जवाकुसुम रखने से जैसे उस का रंग लाल मालूम पड़ता है किन्तु कुसुम के हट जाने पर स्फटिक फिर शुभ्र हो जाता है। इसी तरह देव और नारकों