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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
की उपशान्ति और ब्रह्मरन्ध्र में धारण करने से सिद्धि के प्रति उन्मुख होता है और धीरे धीरे सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। ___ इस प्रकार धारणा का अभ्यास करके शरीर के अन्दर रही हुई वायु की गति या हल चल को अच्छी तरह पहिचाने। नाभि से निकलते हुए पवन की गति को, हृदय में उसके हलन चलन को तथा ब्रह्मरन्ध्र में उसकी स्थिति को पूर्णतया जान लेवे । अभ्यास द्वारा वायु के संचार, गमन और स्थिति का ज्ञान हो जाने पर समय, आयु और शुभाशुभ फलोदयं को जानना चाहिए। ____ इस के बाद पवन को ब्रह्मरन्ध्र से धीरे धीरे खींचते हुए हृदयपद्म में लाकर वहीं रोके । हृदय में पवन को रोकने से अविद्या और कुवासनाएं दूर होती हैं, विषयेच्छा नष्ट हो जाती है। संकल्प विकल्प भाग जाते हैं । हृदय में ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है । हृदय में मन को स्थिर करके किस मण्डल में वायु की गति है, कहाँ संक्रम है, कहाँ विश्राम है, कौन सी नाड़ी चल रही है इत्यादि बातें जाने। ____ नाक के छिद्र में चार मण्डल हैं- भौम, वारुण, वायव्य,
और आग्नेय । तितिरूप पृथ्वी बीज से भरा हुआ, वज्र के चिह्नवाला, चौकोण, पिघले हुए सोने की प्रभावाला भौममण्डल है । अर्धचन्द्र के आकार वाला, वरुणाक्षर अर्थात् 'व' के चिह्न वाला, चन्द्र सरीखी सफेद प्रभावाला अमृत को झरने वाला वारुण मण्डल है । चिकने सुरमे और घने बादलों की छाया वाला, गोल, बीच में बिन्दुवाला, दुर्लक्ष्य, हवा मे घिरा हुआ वायुमण्डल है । ऊँची उठती हुई ज्वाला से युक्त भयङ्कर त्रिकोण, स्वस्तिका के चिह्नवाला, आग के पतिंगे की तरह पीला अग्नि के बीज अर्थात् रेफवाला आग्नेय मण्डल है।