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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
व्यानवायु को जीत लेने पर सरदी और गरमी से कष्ट नहीं होता।शरीर की कान्ति बढ़ती है और वह स्वस्थ रहता है । . मनुष्य के जिस अङ्ग में रोग या पीड़ा हो, उसी अंग में वायु को रोकने से रोग चला जाता है । इस प्रकार प्राणादि पर विजय प्राप्त करने पर मन को स्थिर करने के लिए धारणा आदि का अभ्यास करे। उस की विधि नीचे लिखी जाती है
पर्यक आदि आसन से बैठ कर पहिले सारीवायु को नासिका द्वारा शरीर से बाहर निकाल दे, फिर बाई नासिका से पैर के अंगूठे तक वायु को खींचे। इस के बाद मनोयोगपूर्वक वायु को शरीर के अंगों में ले जाकर कुछ देर रोके । पैर के अंगूठे, पैर के तले, एड़ी, पैर की गांठ अर्थात् गट्टो में, जंघा अर्थात् पिंडलियों में जानु अर्थात् घुटनों में, ऊरु अथोत् साथल में, गुदा, लिङ्ग, नाभि, उदर, हृदय, कण्ठ, जीभ, तालु, नाक का अग्रभाग, नेत्र, भौंह, ललाट और सिर में मन की तीव्रभावना से वायु को स्थिर करे। इस प्रकार वायु को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाता हुआ ब्रह्मपुर में ले जावे। फिर उल्टे क्रम से धीरे धीरे नीचे उतारता हुआ मन और वायु को पैर के अंगूठे तक ले आवे । इस के बाद नाभिपद्म में लेजाकर धीरे धीरे दाहिनी नासिका से छोड़ दे।
पैर के अंगूठे से लेकर लिङ्ग तक धारण की हुई वाय से शीघ्र गति और बल प्राप्त होता है । नाभि में धारण करने से ज्वरादि का नाश, पेट में धारण करने से कायशुद्धि, हृदय में ज्ञान, कूर्मनाड़ी में रोग और बुढापे का नाश, कण्ठ में भूख और प्यास की शान्ति, जिह्वा के अग्रभाग में रस का ज्ञान, नासिका के अग्रभाग में गन्धज्ञान, आँखों में रूपज्ञान, भाल में धारण करने से मस्तक के सब रोगों का नाश तथा क्रोध