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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रेचक से पेट की बीमारियों तथा कफ का क्षय होता है। पूरक से बल की वृद्धि तथा रोग नष्ट होते हैं । कुम्भक से हृदयपद्म खिल उठता है। अन्दर की गांठ खुल जाती है । बल और स्थिरता की वृद्धि होती है। प्रत्याहार से बल और कान्ति बढ़ती है । शान्त से दोष शान्त होते हैं । उत्तर और अधर से कुम्भक स्थिर रहता है । इन के और भी बहुत से फल हैं।
प्राणायाम से पांचों तरह की वायु का जय होता है। प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान इन सब पर विजय प्राणायाम से ही प्राप्त होती है। जो वायु सारे शरीर पर नियन्त्रण करती है अर्थात् जिस के रहने पर ही मनुष्य चलता फिरता है, जिस के बिना मिट्टी का लोन्दा है उसे प्राण कहते हैं । मल, मूत्र
और गर्भ वगैरह को बाहर निकालने वाली वायु अपान है। खाये पिये आहार के रक्त रसादि रूप परिणाम को जो उचित परिमाण में यथास्थान पहुँचाती है उसे समान वायु कहते हैं । जो रस वगैरह को ऊपर लेजावे उसे उदानवायु कहते हैं। जो सब जगह व्याप्त रहती है उसे व्यान कहते हैं। प्राणावायु नासिका, हृदय, नाभि और पैर के अंगूठे तक जाती है। इसका वर्ण हरा है। बार बार रेचक तथा पूरक करने को गमागमप्रयोग कहते हैं । कुम्भक करने को धारणा कहते हैं । प्राणवायु का जय गमागमप्रयोग और धारणा से होता है । अपान वायु काले रंग की है । गर्दन के पीछे की नाड़ियाँ, पीठ, गुदा तथा पार्णियाँ अर्थात् पैर का पिछला हिस्सा इसके स्थान हैं । इसके अपने स्थानों में रेचक और पूरक करने से इस पर विजय प्राप्त होती है।
समानवायु का रंग सफेद है। हृदय, नाभि और सारी सन्धियाँ इसके स्थान हैं । इसकी अपनी जगह में बार वार