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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वही जीव का आवरण है। क्रिया को कर्म न कहना मिथ्या है। (४) मुदग्गे जीवे- चौथे विभङ्गज्ञान वाला जोव बाह्य और
आभ्यन्तर पुद्गलों से तरह तरह की क्रियाएँ करते हुए देवों को देखता है। वह कहता है- “जीव पुद्गल रूप ही है। जो लोग 'जीव को पुद्गल रूप नहीं मानते उनका कहना मिथ्या है। (५)अमुदग्गे जीवे- पाँचवें विभङ्गज्ञान वाला जीव बिना पुद्गलों की सहायता के ही देवों को विविध विक्रियाएँ करते देखता है इससे वह निश्चय करता है कि जीव पुद्गल रूप नहीं है। उसे पुद्गल रूप कहना मिथ्या है।" वास्तव में शरीर सहित संसारी जीव पुद्गल और अपुद्गल दोनों रूप है। (६) रूपी जीवे-छठे विभङ्गज्ञान वाला जीव देवों को विविध पुद्गलों से तरह तरह की विकुर्वणाएँ करते देखता है और कहता हैं- 'जीव रूपी है। जो लोग इसे अरूपी कहते हैं वे मिथ्या हैं। (७) सबमिणं जीवा- सातवें विभङ्गज्ञान वाला जीव पुद्गल के छोटे छोटे स्कन्धों को वायु द्वारा चलते फिरते देखता है और कहता है- 'ये सभी जीव हैं। चलने फिरने वालों में से वायु वगैरह कोजीव बताना और बाकी को न बताना मिथ्या है।'
(ठाणांग सूत्र ५४२) ५५६-प्राणायाम सात ____प्राण अर्थात् शरीर के अन्दर रहने वाली वायु को रोकना
प्राणायाम है। अथवा प्राणों के आयाम अर्थात् लम्बाने को .या प्राणों के व्यायाम को प्राणायाम कहते हैं । प्राणायाम से
शरीर के अन्दर की वायु शुद्ध होती है । रोगों का नाश होता है। प्राणायाम से मन स्थिर होता है, क्योंकि मन और प्राणवायु
का एक ही स्थान है । ये दोनों दूध पानी को तरह मिले हुए . हैं । जहाँ जहाँ मन है वहाँ प्राण है । मन और प्राण की गति