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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
५५८-विभंगज्ञान सात
मिथ्यात्व युक्त अवधिज्ञान को विभङ्गज्ञान कहते हैं। किसी बालतपस्वी को अज्ञान तप के द्वारा जब दूर के पदार्थ दीखने लगते हैं तो वह अपने को विशिष्ट ज्ञान वाला समझ कर सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास न करता हुआ मिथ्या प्ररूपणा करने लगता है। ऐसा बालतपस्वी अधिक से अधिक ऊपर सौधर्मकल्प तक देखता है। अधोलोक में बिल्कुल नहीं देखता। किसी तरफ का अधूरा ज्ञान होने पर वैसी ही वस्तुस्थिति समझ कर दुराग्रह करने लगता है। विभङ्गज्ञान के सात भेद हैं(१) एगदिसिलोगाभिगमे- जिस तापस को इस तरह का विभङ्गज्ञान होता है, वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण या सौधर्मकल्प तक ऊर्ध्व दिशा को देखने लगता है। उसे देख कर उसके दिल में दुराग्रह उत्पन्न होता है कि मैंने अपने अतिशय ज्ञान में लोक को एक ही दिशा में देखा है, जो साधु श्रमण यह कहते हैं कि पाँचों दिशाओं में लोक है, वे मिथ्या कहते हैं। (२)पंचदिसिलोगाभिगमे-इस विभङ्गज्ञान वाला पाँचों दिशाओं को देखने लगता है। मिथ्याभिनिवेश के कारण वह कहता है, पाँचों दिशाओं में ही लोक है । जो श्रमण एक दिशा में भी लोक है, ऐसा कहते हैं उनका कहना मिथ्या है। वास्तव में लोक एक दिशा में भी है और पाँचों दिशाओं में भी । इस लिये एक दिशा में उसका निषेध करना मिथ्यात्व है। (३) किरियावरणे जीवे- तीसरे विभङ्गज्ञान वाला व्यक्ति हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, चोरी करते हुए, मैथुन सेवते हुए, परिग्रह संचित करते हुए, रात्रि-भोजन करते हुए जीवों को देखता है। कहीं भी कर्म को नहीं देखता। इसलिए कहता है- “ मैंने अपने विशेष ज्ञान में देखा है, क्रिया ही कर्म है