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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
हैं अर्थात् सम्यक् प्रकार से विनय आदि समाधिस्थानों की आराधना करते हैं।" (२) दूसरी गाथा में विनयसमाधि के चार भेद बताये गए हैं
विनयसमाधि का आराधन करता हुआ मोक्षार्थी जीव इहलोक तथा परलोक में उपकार करने वाले आचार्य आदि के उपदेश की इच्छा करता है। उनके उपदेश को ठीक ठीक समझता या धारण करता है। जान लेने के बाद उस पर आचरण करता है और आचरण करता हुआ भी गर्व नहीं करता। (३) तीसरी गाथा में श्रुतसमाधि के चार भेद बताए हैं___ " श्रुतसमाधि में लगा हुआ जीव चार कारणों से स्वाध्याय आदि करता है । (१) ज्ञान के लिए (२) चित्त को एकाग्र करने के लिए (३) विवेकपूर्वक धर्म में दृढता प्राप्त करने के लिए (४) स्वयं स्थिर होने पर दूसरों को भी धर्म में स्थिर करने के लिए। (४) चौथी गाथा में तप समाधि के चार भेद हैं
(१) इस लोक के फलों के लिए तप न करना चाहिए।(२) परलोक के लिये भी तप न करना चाहिए। (३) कीर्ति, वाद, प्रशंसा, यश आदि के लिये भी तपन करना चाहिये । (४) केवल निर्जरा के लिये ही तप करना चाहिये ।गाथा का भावार्थ नीचे लिखे अनुसार है___ तपसमाधि की आराधना करने वाला अनशन आदि अनेक प्रकार के तपों में सदा लगा रहता है। निर्जरा को छोड़ कर इहलोक आदि के किसी फल की आशा नहीं करता और तप के द्वारा संचित कर्मों को नष्ट करता है। ( ५ ) पाँचवीं गाथा में आचारसमाधि के चार भेद किये हैंइनमें तीन भेद तपसमाधि सरीखे हैं अर्थात् इहलोक, परलोक या कीर्ति आदि की कामना से आचार न पालना और