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मी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप होता है । इसके सात भेद हैं-- (१) औदारिक पुद्गल परावर्तन- औदारिक शरीर में वर्तमान जीव के द्वारा औदारिक शरीर के योग्य समस्त पुद्गलों को औदारिक शरीर रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है उसे औदारिक शरीर पुद्गल परावर्तन कहते हैं। (२) वैक्रिय पुद्गल परावर्तन- वैक्रिय शरीर में वर्तमान जीव के द्वारा वैक्रिय शरीर के योग्य समस्त पुद्गलों को वैक्रिय शरीर रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है, उसे वैक्रिय पुद्गल परावर्तन कहते हैं । (३) तैजस पुद्गल परावर्तन- तैजस शरीर में वर्तमान जीव के द्वारा तैजस शरीर के योग्य समस्त पुद्गलों को तैजस शरीर रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है उसे तैजस पुद्गल परावर्तन कहते हैं। ( ४ ) कार्माण पुद्गल परावर्तन- कार्माण शरीर में वर्तमान जीव के द्वारा कार्माण शरीर के योग्य समस्त पुद्गलों को कार्माण रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है उसे कार्माण पुद्गल परावर्तन कहते हैं। (५) मनः पुद्गल परावर्तन- जीव के द्वारा मनोवर्गणा के योग्य समस्त पुद्गलों को मन रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है उसे मनः पुद्गल परावर्तन कहते हैं। (६) वचन पुद्गल परावर्तन- जीव के द्वारा वचन के योग्य समस्त पुद्गलों को वचन रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है, उसे वचन पुद्गल परावर्तन कहते हैं। (७) प्राणापान पुद्गल परावर्तन- जीव के द्वारा प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) के योग्य समस्त पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास रूप से ग्रहण करके पुनः छोड़ने में जितना समय लगता है उसे