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भी सेठिया जैन प्रन्यमाला
पाणापान पुद्गल परावर्तन कहते हैं।
(टाणांग सूत्र १३६) (भगवती शतक १२ उद्देशा ४) (पंचसंग्रह दूसरा द्वार) (कर्मग्रन्थ । गाथा ८८) (प्रवचनसारोद्धार १६१ वां द्वार) ५४७- काययोग के सात भेद
काया की प्रवृत्ति को काययोग कहते हैं। इसके सात भेद हैं(१) औदारिक, (२) औदारिकमिश्र, (३) वैक्रिय, (४) वैक्रियमिश्र, (५) आहारक, (६) आहारकमिश्र, (७) कार्माण । (१) औदारिक काययोग- केवल औदारिक शरीर के द्वारा होने वाले वीर्य अर्थात् शक्ति के व्यापार को औदारिक काययोग कहते हैं । यह योग सब औदारिक शरीरी मनुष्य और तिर्यञ्चों को पर्याप्त दशा में होता है। (२) औदारिकमिश्र काययोग- औदारिक के साथ कार्माण, वैक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं । यह योग उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था पर्यन्त सर औदारिक शरीरधारी जीवों को होता है।
वैक्रिय लब्धिधारी मनुष्य और तिर्यश्च जब वैक्रिय शरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिकमिश्र होता है। लब्धिधारी मुनिराज जब आहारक शरीर निकालते हैं तब तो आहारकमिश्र काययोग का प्रयोग होता है किन्तु आहारक शरीर के निवृत्त होते समय अर्थात् वापिस स्वशरीर में प्रवेश करते समय औदारिकमिश्र काययोग का प्रयोग होता है ।
केवली भगवान् जब केवलिसमुद्घात करते हैं तब केवलिसमुद्घात के आठ समयों में दूसरे, छठे और सातवें समय में
औदारिकमिश्र काययोग का प्रयोग होता है। (३) वैक्रिय काययोग- सिर्फ वैक्रिय शरीर द्वारा होने वाले