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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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सात ही है अर्थात् ध्वनि के मुख्य सात भेद हैं । षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, रैवत या धैवत और निषाद । (१) नाक, कंठ, छाती, तालु, जीभ और दाँत इन छः स्थानों के सहारे से पैदा होने वाले स्वर को षड्ज कहा जाता है। (२) जब वायु नाभि से उठकर कंठ और मूर्धा से टकराता हुआ वृषभ की तरह शब्द करता है तो उस स्वर को वृषभ स्वर कहते हैं। (३) जब वायु नाभि से उठकर हृदय और कण्ठ से टकराता हुआ निकलता है तो उसे गान्धार कहते हैं । गन्ध से भरा होने के कारण इसे गान्धार कहा जाता है। (४) नाभि से उठकर जो शब्द हृदय से टकराता हुआ फिर नाभि में पहुंच जाता है और अन्दर ही अन्दर गूंजता रहता है उसे मध्यम कहते हैं। (५) नाभि, हृदय, छाती, कण्ठ और सिर इन पांच स्थानों में उत्पन्न होने वाले स्वर का नाम पंचम है अथवा षड्जादि स्वरों की गिनती में यह पांचवाँ होने से पंचम कहलाता है। (६) धैवत स्वर बाकी के सब स्वरों का सम्मिश्रण है। इसका दूसरा नाम रैवत है। (७) तेज होने से निषाद दूसरे सब स्वरों को दबा देता है। इसका देवता मूर्य है। इन सातों स्वरों के सात स्थान हैं। यद्यपि प्रत्येक स्वर कंठ ताल्वादि कई स्थानों की सहायता से पैदा होता है तथापि जिस स्वर में जिस स्थान की अधिक अपेक्षा है वही उसका विशेष स्थान माना गया है।
(१) षड्ज जिहा के अग्रभाग से पैदा होता है । (२) ऋषभवक्षस्थल से । (३) गांधार कण्ठ से । (४) मध्यम जिह्वा के मध्यभाग से । (५) पंचम नाक से । (६) रैवत दांत और ओठ