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श्रीसेठिाक जैन मन्प्रथमला
छोड़ा गया है और देव पर्याय द्वारा प्राप्त किया गया है। दो वस्तुओं के मिलने या अलग होने पर दोनों के लिए मिलने या छोड़ने का व्यवहार किया जा सकता है। जैसे क और ख के
आपस में मिलने पर यह भी कहा जा सकता है कि क ख से मिला और यह भी कहा जा सकता है कि ख क से मिला । अलग होने पर भी ख ने क को छोड़ा या क ने ख को छोड़ा दोनों तरह कहा जा सकता है। इसी तरह द्रव्य पर्यायों को प्राप्त करता और छोड़ता है और पर्याय द्रव्य को प्राप्त करते तथा छोड़ते हैं। पहिली विवक्षा के अनुसार पहला लक्षण है और दूसरी के अनुसार दूसरा । (३) सत्ता के अवयव को द्रव्य कहते हैं। जितने पदार्थ हैं वे सभी सत् अर्थात् विद्यमान हैं। इसलिए सभी सत्ता वाले हैं। द्रव्य, गुण, पर्याय आदि भिन्न भिन्न विवक्षाओं से वे सभी सत् के भेद या अवयव हैं। (४) सत्ता के विकार को द्रव्य कहते हैं, क्योंकि सभी घटपटादि द्रव्य महासामान्यात्मक सत् के विकार हैं। जीव, पुद्गल वगैरह द्रव्यों को यद्यपि किसी का विकार नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे नित्य हैं, तो भी पर्याय और द्रव्य का तादात्म्य (एकरूपता) होने से द्रव्य भी पर्यायरूप है। उस हालत में द्रव्य विकार रूप हो सकता है। सत्ता के विकार भी सत्ता सत्तावान् का अभेद मान कर ही कहा जा सकता है क्योंकि महासामान्यरूप सत्ता का कोई अलग रूप नहीं है। कथंचित्तादात्म्य से सत् अर्थात् सत्तावान् को सामान्य समझ कर यह कहा गया है। (५) रूप रसादि या ज्ञान, दर्शनादि गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। प्रत्येक द्रव्य अपने अन्दर रहे हुए गुणों का समूह है। (६) जो भविष्यत् पर्याय के योग्य होता है अर्थात् उसे प्राप्त