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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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पाँचवें आरे में भी जिनकल्पी हो सकते हैं। महाविदेह क्षेत्र से संहरण होने पर तो सभी आरों में जिनकल्पी हो सकते हैं। जिनकल्प अङ्गीकार करने वाले साधु सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र में तथा जिनकल्प अंगीकार किये हुए साधु सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र में उपशम श्रेणी प्राप्त करके तो हो सकते हैं लेकिन तपक श्रेणी पाकर नहीं। अधिक से अधिक जिनकल्पी साध दो सौ से लेकर नौ सौ तक होते हैं । जिन्होंने पहिले जिनकल्प अंगीकार कर लिया है ऐसे साधु अधिक से अधिक दो हजार से नौ हजार तक होते हैं। प्रायः वे अपवाद का सेवन नहीं करते। जंघाबल क्षीण होने पर भी आराधक होते हैं । इन में श्रावश्यिकी, नैषधिकी, मिथ्या दुष्कृत, गृहिविषय पृच्छा और गृहिविषय उपसम्पदा पाँच समाचारियाँ होती हैं। इच्छा, मिच्छा आदि दूसरी समाचारियाँ नहीं होती । कुछ आचार्यों का मत हैजिनकल्पी को आवश्यिकी, नैषधिकी और गृहस्थोपसंपत् ये तीन समाचारियाँ ही होती हैं , क्योंकि उद्यान में वसने वाले साधु के सामान्य रूप से पृच्छा आदि का सम्भव भी नहीं है।
यथालन्दिक कल्प की समाचारी संक्षेप से निम्नलिखित है। पानी से भीगा हुआ हाथ जितनी देर में सूखे उतने समय से लेकर पाँच रात दिन तक के समय को लन्द कहते हैं । उतना काल उल्लंघन किये बिना जोसाधु विचरते हैं, अर्थात् एक स्थान पर अधिक से अधिक पाँच दिन ठहरते हैं, वे यथालन्दिक कहलाते हैं। उन्हें भी जिनकल्पी की तरह तप, सत्त्व आदि भावनाएं सेवन करनी चाहिएं । इस कल्प को पाँच साधुओं की टोली स्वीकार करती है। वे भी गांव के छह विभाग करते हैं। यथालंदिक कम से कम पन्द्रह होते हैं और