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भी सेठिया जैन प्रन्थमाला
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उपसर्ग और परीषों को सहते हैं । रोग होने पर औषधि का सेवन नहीं करते । रोग से होने वाली वेदना शान्त हो कर सहते हैं । जहाँ मनुष्य अथवा तिर्यश्च का न आना जाना हो न लोक अर्थात् दृष्टि पड़ती हो वहीं लघुशङ्का या दीर्घशङ्का करे, दूसरी जगह नहीं । जिनकल्पी साधु न अपने निवासस्थान से ममत्व रखते हैं न उनके लिए कोई परिकर्म विहित है । परिकर्म रहित स्थान में भी वे प्रायः खड़े रहते हैं । अगर ad हैं तो उत्कुटुक आसन से ही बैठते हैं। पलाथी मार कर नहीं बैठते, क्योंकि उन के पास जमीन पर बिछाने के लिए आसन वगैरह कुछ नहीं होता । मार्ग में जाते हुए उन्मत्त हाथी, व्याघ्र, सिंह आदि सामने आजायँ तो उन के भय से इधर उधर भाग कर ईर्यासमिति का भंग नहीं करते, सीधे चले जाते हैं । इत्यादि जिनकल्प की विधि शास्त्र में बताई गई है ।
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पूर्वोक्त दोनों प्रकार के कल्पों में श्रुत और संहनन वगैरह निम्न प्रकार से होने चाहिए । जिनकल्पी को कम से कम नवम पूर्व की तीसरी आचारवस्तु तक श्रुतज्ञान होना चाहिए । अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्व । वज्र की भींत के समान मजबूत पहिला वज्रऋषभनाराच संहनन होना चाहिए । कल्प अंगीकार करने वाले पन्द्रह कर्म भूमियों में ही होते हैं। । देवता द्वारा हरण किए जाने पर अकर्म भूमि में भी पहुँच सकते हैं । उत्सर्पिणी काल में जिनकल्पी तीसरे और चौथे मरे में ही होते हैं। केवल जन्म के कारण दूसरे आरे में भी माने जा सकते हैं। अवसर्पिणी काल में जिनकल्प लेने वाले का जन्म तीसरे और चौथे आरे में ही होता है। आचार से
परिहारविशुद्धि चारित्र वाले ही जिनकल्प धारण करते हैं और ये दस क्षेत्र में ही होते हैं, महाविदेह में नहीं ।