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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह
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निःशल्यत्व, विनय मार्ग की उन्नति, एकत्व, लघुता और जिनकल्प में अप्रतिबन्ध ये गुण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सब को खमाकर अपने उत्तराधिकारी आचार्य तथा साधुओं को शिक्षा दे। __ आचार्य को कहे-तुम्हें अब गच्छ का पालन करना चाहिए, तथा किसी बात में परतन्त्र या प्रतिबद्ध नहीं रहना चाहिए। अन्त में तुम्हें भी मेरी तरह जिनकल्प आदि अंगीकार करना चाहिए। जैनशासन का यही क्रम है । जो साधु विनय के योग्य हों उन के आदर सत्कार में कभी आलस मत करना। सब के साथ योग्य बर्ताव करना । आचार्य को इस प्रकार कहने के बाद दूसरे मुनियों को कहे "यह आचार्य अभी छोटा है।ज्ञान, दर्शन, और चारित्रादि में बराबर है या कम श्रुत वाला है, ऐसा समझ कर नये आचार्य का निरादर मत करना क्योंकि अब वह तुम्हारे द्वारा पूजने योग्य है । यह कहकर जिनकल्पी साधु पंखवाले पक्षी की तरह अथवा बादलों से निकली हुइ बिजली की तरह निकल जाय । अपने उपकरण लेकर समुदाय के साधुओं से निरपेक्ष होता हुआ वह महापुरुष धीर हो कर चला जाय । मेरु की गुफा में से निकले हुए सिंह की तरह गच्छ से निकला हुआ आचार्य जब दिखाई देना बन्द हो जाता है तो दूसरे साधु वापिस लौट आते हैं। जिनकल्प अंगीकार किया हुआ साधु एक महिने के लिए निर्वाह के योग्य क्षेत्र ढूंढ कर वहीं विचरे। ___ पहिले कही हुई सात एषणाओं में पहिली दो छोड़कर किन्हीं दो के अभिग्रह से लेप रहित आहार पानी ग्रहण करे । एषणादि कारण के बिना किसी के साथ कुछ न बोले । एक बस्ती में एक साथ अधिक से अधिक सात जिनकल्पी रहते हैं। वे भी एक दूसरे के साथ बातचीत नहीं करते । सभी