________________
२५०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कर बाकी पांच का ग्रहण करते हैं। (१) असंसहा-हाथ और भिक्षा देने का बर्तन अन्नादि के संसर्ग से रहित होने पर सूजता अर्थात् कल्पनीय आहार लेना। (२) संसहा- हाथ और भिक्षा देने का बर्तन अन्नादि के संसर्ग वाला होने पर सूजता और कल्पनीय आहार लेना। (३) उद्बडा- थाली बटलोई वगैरह बर्तन से बाहर निकाला
हुआ मूजता और कल्पनीय आहार लेना। (४) अप्पलेवा-अल्प अर्थात् बिना चिकनाहट वाला आहार
लेना । जैसे भुने हुए चने।। (५) गृहस्थ द्वारा अपने भोजन के लिए थाली में परोसा हुआ
आहार जीमना शुरू करने के पहिले लेना। (६) पग्गहिय- थाली में परोसने के लिए कुड़छी या चम्मच वगैरह से निकाला हुआ आहार थाली में डालने से पहिले लेना। (७) उझियधम्मा- जो आहार अधिक होने से या और किसी कारण से श्रावक ने फेंक देने योग्य समझा हो, उसे सूजता होने पर लेना। (आचारांग श्रु० २ पिंडैषणाध्ययन उद्देशा ७) (ठाणांग सुत्र ५४५)
(धर्मसंग्रह अधिकार ३) ५२०- पानषणा के सात भेद
निर्दोष पानी लेने को पानैषणा कहते हैं। इसके भी पिंडैषणा की तरह सात भेद हैं। (आचारांग श्रु० २ पिंडषणाध्ययन उद्देशा ७) (ठाणांग सूत्र ५४३)
(धर्मसंग्रह अधिकार ३)
हाथ वगैरह संसृष्ट होने पर बाद में सचित्त पानी से धोने, या भिक्षा देने के बाद पाहार कम हो जाने पर और बनाने में पश्चात्कर्म दोष लगता है। इसलिए श्रावक को बाद में सचित्त पानी से हाथ वगैरह नहीं धोने चाहिए और न नई वस्तु बनानी चाहिए।