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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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५२१- प्रमादप्रतिलेखना सात
वस्त्र पात्र आदि वस्तुओं के विधिपूर्वक दैनिक निरीक्षण को प्रतिलेखना कहते हैं । उपेक्षापूर्वक विधि का ध्यान रक्खे बिना प्रतिलेखना करना प्रमादप्रतिलेखना है । इसके तेरह भेद हैं। छः भेद बोल नं० ४४६ में दिए गए हैं। बाकी सात भेद नीचे दिये जाते हैं(१) प्रशिथिल- वस्त्र को दृढ़ता से न पकड़ना । (२) प्रलम्ब- वस्त्र को दूर रख कर प्रतिलेखना करना । (३) लोल-जमीन के साथ वस्त्र को रगड़ना। (४) एकामों- एक ही दृष्टि में तमाम वस्त्र को देख जाना। (५) अनेकरूपधूना-प्रतिलेखना करते समय शरीर या वस्त्र
को इधर उधर हिलाना। (६) प्रमाद-- प्रमादपूर्वक प्रतिलेखना करना। (७) शंका- प्रतिलेखन करते समय शंका उत्पन्न हो तो अंगुलियों पर गिनने लगना और उससे उपयोग का चूक जाना (ध्यान कहीं से कहीं चला जाना)
(उत्तराध्ययन अध्ययन २६ गाथा २७) ५२२-- स्थविर कल्प का क्रम
दीक्षा से लेकर अन्त तक जिस क्रम से साधु अपने चारित्र तथा गुणों की वृद्धि करता है, उसे कल्प कहते हैं। स्थविर कल्पी साधु के लिए इसके सात स्थान हैं। (१) प्रव्रज्या अर्थात् दीक्षा । (२) शिक्षापद-शास्त्रों का पाठ । (३) अर्य ग्रहण- शास्त्रों का अर्थ समझना। (४) अनियतवास अर्थात देश देशान्तर में भ्रमण । (५) निष्पत्ति- शिष्य आदि को प्राप्त करना । (६) विहार-जिनकल्पी या यथालिन्दक कल्प अंगीकार करके विहार करना । (७) समाचारी-जिनकल्प