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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह
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लाये हुए का स्वयं उपभोग कर लूंगा। जो साधु जिनकल्प की तैयारी करते हैं और उग्र तपस्वी तथा उग्र चारित्र वाले होते हैं, वे ऐसी प्रतिमा लेते हैं। तपस्या आदि में लीन रहने के कारण वे अपने लिए भी मांगने नहीं जा सकते। दूसरे साधुओं द्वारा लाये हुए को ग्रहण करके अपना काम चलाते हैं। (५) मैं अपने लिए तो अवग्रह याचूंगा, दूसरे साधुओं के लिए नहीं । जो साधु जिनकल्प ग्रहण करके अकेला विहार करता है, यह प्रतिमा उसके लिए है। (६) जिससे अवग्रह ग्रहण करूँगा उसीसे दर्भादिक संथारा भी ग्रहण करूँगा। नहीं तो उत्कुटुक अथवा किसी दूसरे आसन से बैठा हुआ ही रात बिता दूंगा । यह प्रतिमा भी जिनकल्पिक आदि साधुओं के लिए है। (७) सातवीं प्रतिमा भी छठी सरीखी ही है। इसमें इतनी प्रतिज्ञा अधिक है 'शिलादिक संस्तारक बिछा हुआ जैसा मिल जायगा वैसा ही ग्रहण करूँगा, दूसरा नहीं' । यह प्रतिमा भी जिनकल्पिक आदि साधुओं के लिए है।
(प्राचारांग श्रु० २ चूलिका १ अध्ययन ७ उद्देशा २) ५१९- पिण्डैषणाएं सात
बयालीस दोष टालकर शुद्ध आहार पानी ग्रहण करने को एषणा कहते हैं। इसके पिंडैषणा और पानैषणा दो भेद हैं। आहार ग्रहण करने को पिंडैषणा तथा पानी ग्रहण करने को पानैपणा कहते हैं । पिंडैषणा अर्थात् आहार को ग्रहण करने के सात प्रकार हैं। साधु दो तरह के होते हैं - गच्छान्तर्गत अर्थात गच्छ में रहे हुए और गच्छविनिर्गत अर्थात् गच्छ से बाहर निकले हुए । गच्छान्तर्गत साधु सातों पिंडैषणाओं का ग्रहण करते हैं । गच्छविनिर्गत पहिले की दो पिंडैषणाओं को छोड़