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सातवां बोल संग्रह
[बोल नं० ४८-५६३ तक] ४९८- विनय के सात भेद
व्युत्पत्त्यर्थ- विनीयते क्षिप्यतेऽष्टपकारं कर्मानेनेति विनयः। अर्थात् जिस से आठ प्रकार का कर्ममल दूर हो वह विनय है। __स्वरूप-दूसरे को उत्कृष्ट समझ कर उस के प्रति श्रद्धा भक्ति दिखाने और उस की प्रशंसा करने को विनय कहते हैं। विनय के सात भेद हैं-- (१) ज्ञानविनय-- ज्ञान तथा ज्ञानी पर श्रद्धा रखना, उन के प्रति भक्ति तथा बहुमान दिखाना, उन के द्वारा प्रतिपादित वस्तुओं पर अच्छी तरह विचार तथा मनन करना और विधिपूर्वक ज्ञान का ग्रहण तथा अभ्यास करना ज्ञानविनय है। मतिज्ञान आदि के भेद से इस के पाँच भेद हैं। (२) दर्शनविनय-इस के दो भेद हैं सुश्रूषा और अनाशातना। दर्शनगुणाधिकों की सेवा करना, स्तुति वगैरह से उन का सत्कार करना, सामने आते देख कर खड़े होजाना, वस्त्रादि के द्वारा सन्मान करना, पधारिए, आसन अलंकृत कीजिए इस प्रकार निवेदन करना, उन्हें आसन देना, उनकी प्रदक्षिणा करना, हाथ जोड़ना, आते हों तो सामने जाना, बैठे हों तो उपासना करना, जाते समय कुछ दूर पहुँचाने जाना मुश्रषा विनय है। अनाशातनाविनय- यह पैंतालोस तरह का है। अरिहन्त, अर्हत्प्रतिपादित धर्म, प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल,गण, संघ, अस्तिवादरूप क्रिया, सांभोगिकक्रिया, मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पन्द्रह स्थानों की