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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह |
रहना समवाय सम्बन्ध से मानते हैं। सांख्य, योग और मीमांसक जाति या समवाय सम्बन्ध को नहीं मानते । वेदान्त दर्शन में सत्ता तीन प्रकार की है। ब्रह्म में पारमार्थिक सत्ता रहती है । व्यवहार में मालूम पड़ने वाले घट पट आदि पदार्थों में व्यवहार सत्ता । स्वम या भ्रमात्मक ज्ञान के समय उत्पन्न होने वाले पदार्थों में प्रतिभासिक सत्ता अर्थात् वे जितनी देर तक मालूम पड़ते हैं उतनी देर ही रहते हैं।
उपयोग प्रत्येक दर्शन या उसका ग्रन्थ प्रारम्भ होने से पहले अपनी उपयोगिता बताता है । साधारण रूप से सभी दर्शन तथा उन पर लिखे गए ग्रन्थों का उपयोग सुखप्राप्ति और दुःखों से छुटकारा है। किन्तु सुख का स्वरूप सभी दर्शनों में एक नहीं है । इस लिये उपयोग में भी थोड़ा थोड़ा भेद पड़ जाता है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान करवाना ही अपना उपयोग मानता है। योग का उपयोग है चित्त की एकाग्रता । वैशेषिक और न्याय के अनुसार साधर्म्य वैधर्म्य आदि द्वारा तत्त्वज्ञान हो जाना ही उपयोग है । मीमांसा का उपयोग हे यज्ञादि के विधानों द्वारा स्वगे प्राप्त करना । ब्रह्मरूप पारमार्थिक तत्त्व का साक्षात्कार करना ही वेदान्त दर्शन का उपयोग है।
अवैदिक दर्शन जो दर्शन या विचारधाराएँ वेद को प्रमाण नहीं मानती विकास की दृष्टि से उन का क्रम नीचे लिखे अनुसार है--चार्वाक,