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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
का कहना है कि 'यह सांप है' इस ज्ञान में किसी दूसरी जगह देखा हुआ सांप ही मालूम पड़ता है। पहले देखा हुआ सांप 'वह सांप' इस रूप में मालूम पड़ना चाहिये किन्तु दोष के कारण 'यह सांप' ऐसा मालूम पड़ने लगता है । इस प्रकार पूर्वानुभूत सर्प का अन्यथा (दूसरे) रूप में अर्थात् 'वह सांप' की जगह 'यह सांप' मालूम पड़ना अन्यथाख्याति है। __ वेदान्ती अनिर्वचनीय ख्याति मानते हैं। अर्थात् 'यह सांप है' इस भ्रमात्मक ज्ञान में नया सर्प उत्पन्न हो जाता है। वह सांप वास्तविक सत् नहीं है। क्योंकि वास्तविक होता तो उसके काटने का असर होता। आकाशकुसुम की तरह असत्य भी नहीं है, क्योंकि असत् होता तो मालूम ही न पड़ता। सदसत् भी नही है क्योंकि इन दोनो में परस्पर विरोध है । इस लिये सत् असत्
और सदसत् तीनों से विलक्षण अनिर्वचनीय अर्थात् जिस के लिये कुछ नहीं कहा जा सकता ऐसा सांप उत्पन्न होता है। यही अनिर्वचनीय ख्याति है।
प्रमाण वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य तथा योग प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । मीमांसक तथा वेदान्ती प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव ।
सत्ता वेदान्त को छोड़ कर सभी दर्शन सांसारिक पदार्थों को वास्तविक सत् अर्थात् परमार्थ सत् मानते हैं । न्याय, और वैशेषिक सत्ता को जाति मानते हैं तथा पदार्थों में इस का