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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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है कि विपरीत ज्ञान कैसे होता है ? नैयायिकादि प्रायः सभी मतों में ज्ञान के प्रति पदार्थ को कारण माना है । रस्सी में साँप का भ्रम होने पर प्रश्न उठता है कि वहाँ साँप न होने पर भी उसका ज्ञान कैसे हुआ? इसी का उत्तर देने के लिए दार्शनिकों ने भिन्न भिन्न ख्यातियाँ मानी हैं। ___ सांख्य, योग और मीमांसक अख्याति या विवेकाख्याति को मानते हैं । इनका कहना है कि 'यह साँप है' इस में दो ज्ञान मिले हुए हैं। यह रस्सी है और वह साँप। 'यह रस्सी है' यह ज्ञान प्रत्यक्ष है और वह साँप है' यह ज्ञान स्मरण । दोनों ज्ञान सच्चे हैं । सामने पड़ी हुई रस्सी का ज्ञान भी सच्चा है और पहले देखे हुए साँप का स्मरण भी सच्चा है। इन दोनों ज्ञानों में भी दो दो अंश हैं। एक सामान्यांश और दूसरा विशेषांश । रस्सी के ज्ञान में यह सामान्यांश है और रस्सी विशेषांश । 'वह साँप है' इस में वह सामान्यांश और साँप विशेषांश । 'यह साँप है' इस ज्ञान में इन्द्रियादि दोष के कारण एक ज्ञान का विशेष अंश विस्मृत हो जाता है और दूसरे का सामान्य अंश । इस प्रकार इन दोनों ज्ञानों का भेद करने वाले अंश विस्मृत होने से वाकी बचे दोनोअंशों का ज्ञान रह जाता है और वही 'यह साँप है' इस रूप में मालूम पड़ता है।
इन के मत में मिथ्याज्ञान होता ही नहीं । जितने ज्ञान हैं सब स्वयं सच्चे हैं इसलिये 'यह साँप है' यह ज्ञान भी सच्चा है। असल में दो ज्ञान हैं और उन का भेद मालूम न पड़ने से भ्रम हो जाता है । भेद या विवेक का ज्ञान न होना ही विवेकाख्याति है।
नैयायिक और वैशेषिक अन्यथाख्याति मानते हैं। उन