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श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला
पहले वे असत् रहते हैं। किसी भी कार्य के प्रारम्भ होने पर परमाणुओं में क्रिया होती है । दो परमाणु मिलकर गणुक बनता है । तीन घणुकों से त्रसरेणु। इसी प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए अवयवी बनता है। यही आरम्भवाद है।
वेदान्ती विवर्त्तवाद को मानते हैं । इन के मत से संसार अविद्या युक्त ब्रह्म का कार्य है । अविद्या अनादि है। ब्रह्म परमार्थ सत् है और घट पटादि पदार्थ मिथ्या अर्थात् व्यावहारिक सत् है।सब पदार्थों के कारण दो हैं-अविद्या और ब्रह्म।संसार अविद्या का परिणाम है और ब्रह्म का विवत्त । कारण और कार्य की सत्ता एक हो तो उसे परिणाम कहा जाता है। अगर कारण और कार्य दोनों की सत्ता भिन्न भिन्न हो तो उसे विवर्त्त कहा जाता है । माया और संसार दोनों व्यावहारिक सत् हैं इसलिए संसार माया का परिणाम है। ब्रह्म परमार्थ सत् है और संसार व्यावहारिक सत् , इसलिए संसार ब्रह्म का विवर्त्त है।
आत्मपरिणाम छहों दर्शनों में आत्मा विभु है । वेदान्तदर्शन में आत्मा एक है और बाकी मतों में नाना।
ख्याति ज्ञान दो तरह का है- प्रमाण और भ्रम । भ्रम के तीन भेद हैं- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । संदेहात्मक ज्ञान को संशय कहते हैं। विपरीत ज्ञान को विपर्यय और अनिश्चित प्रश्नात्मक ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। विपरीत ज्ञान के लिए दार्शनिकों में परस्पर विवाद है। अंधेरे में रस्सी देख कर साँप समझ लेना विपरीत ज्ञान है। यहाँ पर प्रश्न होता